‘कल्पना ‘ ने जो उड़ान भरी है शायद इसकी कल्पना हम नहीं कर सकते। मैं बात कर रहीं हूँ कल्पना ‘सरोज’ की जो एक दलित और बेहद पिछड़े समाज से ताल्लुकात रखतीं हैं। उनका बचपन बहुत कठिनाइयों से गुज़रा।
बाल-विवाह के साथ -साथ समाज की उपेक्षा और ससुराल वालों का अत्याचार भी सहना पड़ा।दलित होने के कारण उन्हें हमेशा समाज में यहाँ तक की स्कूल में भी शिक्षकों और सहपाठियों की उपेक्षा झेलनी पड़ती थी। वे अपने बचपन के दिन याद करते हुए कहती हैं कि-“मेरे गाँव में बिजली नहीं आती थी । गरीब होने के कारण कोई सुख-सुविधा भी नहीं थी।” वे गोबर उठाया करती थीं तो कभी खेतों में काम किया करतीं थीं और चूल्हे के लिए लकड़ियाँ बीनने भी जाया करतीं थीं। वे बतातीं है कि वे उस समाज से ताल्लुकात रखतीं हैं जहाँ
उनके मामा ये कहा करते थे कि -“लड़कियाँ तो ज़हर की पुड़िया होतीं हैं”।
उनकी शादी भी 12 साल की उम्र में हो गई। उस बच्ची से अगर कभी खाने में नमक ज्यादा हो जाता या अगर कभी कपड़े साफ नहीं धुल पातीं तो उन्हें ससुराल वाले बहुत मारा करते थे। शादी के 6 महीने बाद एक दिन उनके पिता उनसे मिलने के लिए उनकी ससुराल आये और वो अपने पिता से लिपटकर बहुत रोईं शायद उन्हें कुछ कहने की जरूरत नही पड़ी और उनके आँसुओ ने उनकी हालत बखूबी बयां कर दी।
उनके पिता उनको अपने साथ घर ले आए पर वहाँ के लोग उन्हें और उनके पिता को ताने दिया करते थे। जिससे तंग आकर कल्पना ने एक दिन ज़हर पी लिया पर वो बच गई जो भी लोग उनसे मिलने अस्पताल आये उन्होंने कल्पना से कहा कि-
“तुमने ऐसा क्यों किया? लोगों को कुछ नहीं पड़ी है, तुम ज़िन्दा हो तो भी लोग बोलेगें और अगर तुम मर जाती तो भी लोग यही बोलते की तुमने जरूर कुछ ऐसा काम किया होगा जिससे तुम्हें मरना पड़ा तो ज़िन्दा रहो और काम करो।”
फिर उन्होंने सोचा कि अब तो कुछ करना है अपने पैरों पर खड़ा होना हैं, जैसे – तैसे वे मुम्बई आ गई, वे सिलाई का काम जानती थीं इसलिये उन्होंने कपड़े की एक मील में काम करना शुरु किया पर वे उस वक्त सिर्फ सोलह साल की थी और घबराहट की वजह से जब उन्हें मशीन चलाने के लिए बोला गया तो वे चला ही नहीं पाई और फिर उन्हें उसी मील में धागे काटने का काम दे दिया गया जिसके लिए उन्हें महीने के 60 और दिन के 2 रुपए मिला करते थे।
उनके पिता की नौकरी छूट गई थी तो घर पे आर्थिक तंगी का बहुत बुरा माहौल था ऐसे में उनकी बहन का बीमार हो जाना और पैसे न होने के कारण सही इलाज़ न होना पाना फिर उनकी बहन का इस दुनियाँ से अलविदा कह जाना ही शायद उनकी सफलता की वजह बनी। उस दिन उन्होंने ठान लिया कि अब उन्हें हर हाल में पैसे कमाने हैं।
फिर उन्होंने अपने घर पर ही मशीने लगा के 16-16 घण्टे काम करना शुरू किया। फिर उन्हें कुुुछ गवर्नमेंट स्कीम्स के बारे में पता चला और उन्हें लोन ले लिया जिसके लिए भी उन्हें काफी दौड-धूप करनी पड़ी। उन्होंने 50 हजार रुपए का लोन लिया और फर्नीचर का व्यापार शुरू किया ।
एक बार एक प्लॉट के बारे में कल्पना जी को पता चला उसकी ज़मीन पर कोई विवाद चल रहा था , तो कल्पना जी ने उसको विवाद को सुलझाने का प्रयास किया और अच्छी बात यह रही कि प्लॉट का विवाद सुलझ गया।
विवाद सुलझने के बाद उस प्लॉट का जो मालिक था उसने कल्पना जी से कहा- “मैडम आप ये प्लॉट ले लीजिए।”
कल्पना जी ने कहा -“की मेरे पास तो इस वक्त इतने पैसे नहीं हैं”
उस व्यक्ति ने कहा मैडम कोई बात नही मैं ये प्लॉट डेढ़ लाख रुपये में बेचूँगा आप अभी एक लाख रुपये दे दीजिये, बाकी बाद में देते रहियेगा।
कल्पना जी प्लॉट खरीदने के लिए राजी हो गई ।उन्होंने कुछ पैसे बैंक से लोन ले लिए तो कुछ रिश्तेदारों से उधार माँग लिए और ज़मीन खरीद ली । यहीं से शुरू हुई उनके बिल्डर बनने की कहानी।
कमानी ट्यूब्स की कमान अपने हाथों में ली
‘कमानी ट्यूब्स ‘ श्री एन. आर कमानी द्वारा 1960 में शुरू की गई थी। कम्पनी ठीक – ठाक चल रही थी पर 1985 में लेबर यूनियंस और मैनेजमेंट में विवाद होने लगे और कंपनी बंद हो गयी। 1988 में सुप्रीम कोर्ट के आर्डर के बाद इसे दुबारा शुरू किया गया पर एक ऐतिहासिक फैसले में कम्पनी का मालिकाना हक वर्कर्स को दे दिया गया। वे इसे ठीक से चला नहीं पाए और कम्पनी पर करोड़ों का कर्ज हो गया।
फिर कंपनी की बागड़ोर कल्पना जी ने संभाली और सब ठीक कर दिया। फिर 2006 में उन्हें कमानी ट्यूब्स का मालिक बना दिया गया।
ये कल्पना सरोज जी का ही कमाल है कि आज कमानी ट्यूब्स 2000 करोड़ से भी ज्यादा की कंपनी बन गयी है।
कल्पना सरोज जी जो उनके कार्य के लिये 2013 में पद्म श्री सम्मान से भी सम्मानित किया गया और कोई बैंकिंग सेक्टर में कोई अनुभव न होते हुए भी, उनके वित्त संबंधी समझ से प्रभावित होकर भारत सरकार ने उन्हें ‘भारतीय महिला बैंक’ के ‘बोर्ड आफ डायरेक्टर्स’ में नियुक्त किया।
सही कहा है हरिवंशराय बच्चन जी ने –
“लहरों से डर कर नैया पार नहीं होती
कोशिश करने वालों की हार नहीं होती”
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