देश की आबादी हमेशा देश के लिए नुकसान दायी रही हैं। जैसे जैसे देश की जनसंख्या बढ़ती जाती है। वैसे-वैसे देश के नागरिकों की मांगे बढ़ती जाती हैं। अगर देश उसको पूरा करने मे समर्थ होता हैं, तब तो यह कोई दिक्कत वाली बात नहीं हैं। लेकिन अगर देश ऐसा करने मे असमर्थ होता हैं, तो इससे देश को बहुत नुकसान पहुँच सकता हैं। उदहारण के लिए आप आज के समय मे फैली महामारी को हीं देख सकते हैं। आज से कुछ सालों पहले, यानी 1997 में, सरकार को देश को बचाने के लिए ऐसा ही एक जोखिम भरा कदम उठाना पड़ा था। तो आइए जानते हैं की असल में क्या हुआ था।
छपवाए थे बाहर से नोट
आज से कई साल पहले भारत को बाहर से नोट छपवाने की जरूरत पड़ गई थी। ऐसा इस वजह से हुआ था क्योंकि देश में नोट छापने वाली मशीनें बहुत कम थी और लोगों की डिमांड बहुत हीं ज्यादा।उसको पूरा करने के लिए सरकार को ऐसा जोखिम भरा कदम उठाना पड़ गया था। अगर वह ऐसा ना करती तो देश संकट में पड़ जाता। इसका देश की अर्थव्यवस्था पर भी बहुत बुरा असर पड़ता।
क्यों छुपाई इतनी बड़ी बात देश की जनता से?
इस फैसले को लोगों से बिना बताए लिया गया था। अगर लोगों को इस बारे में बताया जाता तो फिर सरकार को बहुत दिक्कत झेलनी पड़ सकती थी। इसी वजह से उसको जितना शांत तरीके से किया जा सकता था, उतना किया गया। हालांकि, इसको छुपाने का एक और भी बहुत बड़ा कारण था। वह यह था कि सरकार नहीं चाहती थी की देश की जनता को इस बारे में भनक भी पड़े क्योंकि यह सौदा बहुत हीं ज्यादा महंगा था।
किसने लिया था इतना बड़ा फैसला?
1996 में देश के प्रधानमंत्री एच डी देवगौड़ा थे। उन्होंने यह निर्णय देश की बढ़ती आबादी की अर्थव्यवस्था को संभालने के लिए बहुत सोच समझ कर लिया था। उनको यह एहसास होने लगा था कि अगर अभी से इन सब चीजों पर ध्यान नहीं दिया गया। तो बाद में यह बहुत बड़ी दिक्कत का मुद्दा बन सकती है।
9.5 करोड़ डॉलर का आया था खर्चा

कई सालों तक भारत ने बाहर के देशों से हीं नोट छपवाए थे। यह सौदा उनके लिए इस वजह से महंगा पड़ गया था क्योंकि अगर पूरा हिसाब सही से लगाया जाए। तो कम से कम इसमें हजारों करोड़ रुपए खर्च हुए थे। सरकार ने 360 करोड़ रुपए छपवाने के लिए 9.5 करोड़ डॉलर की लागत लगा दी थी।
उठाया था बहुत बड़ा जोखिम
यह जोखिम भरा काम इसलिए था क्योंकि इसके लिए सरकार ने बाहर के देशो से नोट छपवाने का निर्णय लिया था। परंतु, वह नोट सही सलामत उनके पास पहुंचेंगे की नहीं, इस बात का उनको बिल्कुल भी अंदाजा नहीं था। हालांकि, इसमें किसी भी प्रकार की दिक्कत नहीं हुई थी। सारे रुपए सही सलामत भारतीय सरकार के पास पहुंच गए थे।
दो कारखानों का हुआ उद्घाटन
सरकार ने इसके कुछ सालो बाद हीं भारत देश में दो नई नोट छापने वाली मशीनों की स्थापना करवाई। उनको यह समझ में आ गया था कि वह ज्यादा समय तक इस काम के लिए बाहरी देशो का सहारा नहीं ले सकते। पहले तो एक नया नोट छापने वाला कारखाना वर्ष 1999 मे मैसूर में खोला गया। फिर कुछ सालो बाद वर्ष 2000 मे सालबोनी, बंगाल में एक दूसरा कारखाना खोला गया। इसके खुलने के बाद ही से भारत देश की नोट छापने की क्षमता अधिक मात्र मे बढ़ गयी थी।
बाहर से मंगाया जाता था नोटों का कागज़
1968 में भारत में नोटों की मांग बहुत ज़्यादा थी क्योकि उस समय देश का विकास होना शुरू हीं हुआ था। वह इतनी थी कि भारत देश उसको पूरा करने में असमर्थ था। इसके चलते उसे बाहरी देशों से (जैसे ब्रिटेन और जापान इत्यादि) से नोट छापने के लिए कागज मंगाना पड़ता था। पर जब देश में 2 नए कारखानों की स्थापना कर दी गई, तब हमारे देश को बाहर से कागज मांगने की जरूरत नहीं पड़ी। आज देश बिना किसी दिक्कत के नोटों को छापने में समर्थ है। आज हम जो भी रुपए का इस्तेमाल करते हैं, वह सब भारत देश में ही छपा हुआ है।
हम सब यह बात जानते हैं कि जिस समय भारत पर अंग्रेजों का कब्जा था। उस समय वह सारी चीजें बाहर से हीं मंगाते थे। इसी के चलते जब देश आजाद हुआ तब भी हमें मजबूरन बाहर से हीं सारी चीजें मंगानी पड़ती थी। परंतु, आज हमारा देश इतना आगे पहुंच चुका है कि उसको बाहर से चीजें मगवाने की जरूरत नहीं पड़ती। वह अपना सारा काम खुद ही कर लेता है। срочный займ на карту
बड़ा रिस्क लिया सरकार ने