ग्रह परिचय एवं महत्व

1. सूर्य

सूर्य जीवन शक्ति का प्रतीक है। यह सब ग्रहों से बलवान है क्योंकि यह समस्त ग्रहों का चालक है। सूर्य से ही सब ग्रहों को तेज मिलता है। यह सिंह राशि का स्वामी है तथा इसकी आकृति चिन्ह कर सिंह है। यह अग्नि तत्व तथा आत्मकारक ग्रह है। इसकी जाति क्षत्रिय, धातु सोना तथा स्वभाव स्थिर है। यह उदम और जीवन शक्ति का कारक ग्रह भी है। यह व्यक्ति में अहं भाव का घोतक है, यह 24 घंटे में एक अंश से कुछ कम, परन्तु साधारणतया इसकी गति एक दिन में एक अंश होती है। एक राशि में औसतन एक मास विचरण करता है। एक वर्ष में यह पूरा राशिचक्र घूम लेता है।
इसके प्रभावाधीन जातक उदार, सद्कर्मों की कामना करने वाला, अधिकारी वाला, गरीबों पर दया करने वाला, परोपकारी होता है। यदि निर्बल हो तो घमण्डी अहं, अभिमानी, अपनी बड़ाई स्वयं करने वाला, अधिकारों का दुरूपयोग करने वाला एवं निर्दयी होता है। सूर्य .. बलवान हो राज्य पद, महत्वाकांक्षा, अधिकार की भावना, स्वाभिमानी, हुकूमत करने वाला, अपनी शक्ति-सामर्थ्य द्वारा ही उन्नति करने वाला, स्वयं पर भरोसा रखने वाला, सुखवीर, चतुर, बलवान, बुद्धिमान, राजकीय ठाठ-बाठ वाला, स्पष्ट बक्ता, गम्भीर, तेजस्वी, परोपकारी, उदार हृदय, विरोधी को पराजय करने वाला तथा उत्तम आचरण वाला होता है।

2. चन्द्रमा

चन्द्रमा कर्क राशि का स्वामी इसका रंग दुधिया सफेद है। यह सारे राशि चक्कर को 27.324 दिनों में पूरा कर लेता है। चन्द्रमा औसतन एक राशि में 2.27 3 दिन रहता है। इसकी गति सब ग्रहों से तेज होती है। इसकी प्रतिदिन चाल अथवा गति 11; अंश से 15 अंश तक है तथा औसतन इसकी गति 13 अंश प्रतिदिन के लगभग रहती है। इस प्रकार इसे एक अंश पार करने के लिए दो  घंटे से कुछ कम समय लगता है। यह पृथ्वी का ही उपग्रह है और अन्य ग्रहों से सबसे अधिक पृथ्वी के नजदीक है। तीव्र गति एवं पृथ्वी के सब ग्रहों में निकटतम होने के कारण इसका कुण्डली पर प्रभाव अत्यधिक महत्व रखता है।

चन्द्रमा जितना बलवान होता है अथवा जिस तरह की इसकी स्थिति होती है, उसी के अनुरूप शरीर एवं मंन पर प्रभाव डालता है। पूर्ण चन्द्रमा शुभ होता है तथा क्षीण चन्द्रमा अशुभ माना गया है। सूर्य के 72 अंश के अन्दर-अन्दर यदि चन्द्रमा हो तो अशुभ फल ही देता है। मानसिक विकास पर इसका विशेष प्रभाव पड़ता है। समुद्र की लहरों अथवा ज्वार-भाटा इसका प्रत्यक्ष प्रमाण कहा जा सकता है।

जिसका जन्म कर्क लग्न में हो और चन्द्रमा भी कर्क राशि अथवा लग्न महा तो उस जातक पर इसका प्रभाव विशेष देखा गया है। यदि ऐसी स्थात हो तो आमतौर पर जन्म नानके, अस्पताल, घर से बाहर या घर में ऊपरी मंजिल पर होता है।

चन्द्रमा वृष राशि में उच्च का व वृश्चिक राशि में नीच का होता  है। 24वें वर्ष में इसका उदय होता है।

3. बुध

यह मिथुन एवं कन्या राशि का स्वामी है। इसका रंग हरा है। यह राशि चक्र को घूमने के लिए लग-भग एक वर्ष समय होता है। यह साधारणतया सर्य के निकट ही रहता है। आमतौर पर यह सूर्य के 28 अंश तक रहता है। सूर्य के इर्द-गिर्द चक्र को यह लगभग 88 दिन लेता है। आम तौर पर जब यह वक्रीय कुण्डली में होता है तो मन की क्रिया सस्त होती है और ऐसे प्रभाव के कारण जातक कई बार उल्टी हरकतें करता है। इसकी यह स्थिति जातक को चिड़चिड़ा.बना देती है। तथा जातक यूँ ही छोटी-छोटी बातों में क्रोध में आ जाता है। ऐसा जातक लापरवाही अथवा बेध्यान होने से दुर्घटना  का शिकार भी हो सकता है।

यह चन्द्रमा की तरह बहत महत्वपूर्ण ग्रह है। यह मुख्यतः मन पर प्रभाव डालता है। यह अपने वल के अनुसार ही मानसिक, बौद्धिक उन्नति को दर्शाता है। जब वह चन्द्रमा के साथ त्रिकोण दृष्टि सम्बन्ध करता है तो अच्छी बद्धि होता है। चतुराई, धार्मिक रूचि, बुद्धि– विवेक, शास्त्रीय विषयों में रूचि तथा मधुर बाणी का कारण है। यह शुभ ग्रह माना गया है। परन्तु बुरे ग्रहों के साथ होने से यह भी बुरा हो जाता है जिन ग्रहों के साथ ये शभ फलदाता हो तो चिकित्सा, शास्त्र ज्ञान, गणित विद्या. लेखा. लेखनकला, वकालत, व्यापार एवं उत्तम बुद्धि प्रदान करता है। यदि अशुभ हो तो सिर का दुखना, जबान थथलाना, दिल्लगी करना, झूठ बोलना, भेदों को गुप्त रखना, उलटे सीधे कार्य करना तथा व्यापार आदि में असफल बनाता है।

4. शुक्र

शुक्र वृष एवं तुला राशि का स्वामी है। नैसर्गिक कुण्डली में यह दूसरे व सातवें भाव का मालिक होता है। साधारणतया यह राशि चक्र 18 मास मे परा करता है। अट्ठारह महीनों में यह लगभग 40 दिन व्रकीय रहता है। उस समय अवधि में भावात्मक गड़बड़ी, उतेजना में उतार-चढ़ाव, लड़ाई-झगड़ा, वियोग-विद्रोह, अलहदगी, स्थाई परिवर्तन, तबादला तथा रिश्तों ने पक्का बिगाड़ होने की प्रबल सम्भावना रहती है। साधारणतया यह सूर्य के इर्द-गिर्द 48 अंश के भीतर रहता है। सूर्य के इर्द-गिर्द घमने में लगभग 22 5 दिन लेता है।

यह अन्य ग्रहों से अधिक चमकदार दिखाई देता है। यदि बध के साथ ही अथवा शुभ हो तो यह ललित कला, चित्रकला, बाचनकला, आदि में प्रवीणता प्रदान करता है। प्रेम-प्यार, घर सुख, पत्नी सुख, सुन्दर चेहरा, उत्तम भाषण शैली, मिलनसार स्वभाव, उत्तम, सुन्दर वस्त्र पहनने का शौकीन एवं वाहन प्रदान करता है यदि शुक्र निर्बल हो तो हकलापन, अपशब्द बोलने वाला, असुख देने वाला तथा कई प्रकार के अवगुण प्रदान करता है। यह पाप ग्रह के साथ हों अथवा दृष्ट हो तो अशुभ फल देता है।

शास्त्रों के अनुसार मिट्टी के मानव बना एवं अग्नि से देवता, इसी लिए इसकी अर्थात् शुक्र की सूर्य के साथ मित्रता नहीं होती क्योंकि शुक्र मिट्टी का कारण माना है। शुक्र जब तक शनि से कार्यों से दूर रहेगा। नेक ही रहेगा। यह भावात्मक प्रेम-प्यार का द्योतक है। सांसारिक कार्य तथा इश्क इकीकी भी इसके, प्रभावाधीन आते हैं।

5. मंगल

यह मेष एवं वृश्चिक राशि का स्वामी है। नैसर्गिक कुण्डली में वह प्रथम तथा आरम्भ भाव का स्वामी होता है। इसे राशि चक्र पूरा करने के लिए लगभग 1711, मास लगते हैं। प्रत्येक दो वर्ष पश्चात् वह लगभग 211, मास वक्रीय रहता है। सूर्य के इर्द-गिर्द घूमने में यह दो वर्ष से कम समय लगाता है। जब यह जन्म कुण्डली में वक्रीय होता है तो इसका प्रभाव बुद्धि, क्रियाशीलता पर बुरा ही होता
है।
यदि मंगल वक्र स्थिति में होता है तो इसके प्रभावाधीन जातक बुरी हरकतें करने लगता है। वह फसादी, अपराधी, अपंग व असामाजिक बना देता है। यदि कुण्डली में एवं यह शुभ प्रभावधीन हो तो शुभ फल देता है। ये आकार में पृथ्वी जैसा है, इसलिए इसे पृथ्वी अथवा भूमिपुत्र भी कहा जाता है। यह ताम्र रंग का चमकता हुआ ग्रह है। यह स्वभाव का क्रोधी, फसादी, चुगलखोर एवं झूठा है। यदि बलवान हो तो पराक्रमी, सच्चाई पसन्द, सहयोगी, सहायता करने वाला, सेनापति, अगुवा, बहादुर, शूरवीर तथा उत्तम डॉक्टर व सर्जन होता है। ये व्यक्ति को ऐसे ही गुण प्रदान करता है। यदि निर्बल हो तो झूठा, चुगलखोर, क्रोधी, दुष्ट, डाकू, चोर बनाता है तथा दुर्घटना कराता है।

मंगल साहस का प्रतीक माना गया है। यदि मंगल बलवान हो तो शक्ति, सामर्थय, भूसम्पति, कृषि निर्बल होने पर फसादी, क्रोधी, आलसी, धोखेबाज़ तथा कुकर्मी बनाता है।

6. गुरू

यह शुभ ग्रह है। धनु एवं मीन राशि का स्वामी है। नैसर्गिक कुण्डली में ये नवम एवं द्वादश भाव का स्वामी है। यह एक राशि में प्रायः एक वर्ष रहता है और पूरा राशि चक्र घूमने के लिए लगभग 12 वर्ष लगाता है। बारह महीनों में यह लगभग 4 मास बक्रीय भी रहता है। इसकी दृष्टि सूर्य, चन्द्र एवं शनि साथ यदि हो तो बहुत महत्वपूर्ण होती है। इनके साथ दृष्टि सम्बन्ध होने से क्रमशः
शरीर, स्व, चन्द्र के साथ दैनिक कार्य-कलाप एवं स्वास्थ्य तथा शनि के साथ काम-काज, रोज़गार पर महत्वपूर्ण प्रभाव डालता है।

ये सबसे बड़ा एवं शनि शुभदायक ग्रह है। केवल आकार में शनि ही उससे बड़ा माना गया है। इसके प्रभावाधीन जातक न्यायप्रिय, सच्चा सद्गुणी बनता है। यह सुख देने वाला. ग्रह माना है। शास्त्रों का कथन है कि इसमें शुक्र जिसे नारी अंथवा स्त्री की संज्ञा दी गई है, छुपा . हुआ है। शुक्र को मिट्टी भी माना है जो समस्त बीज का पालन-पोषण करती है। इसीलिए जब बीज मिट्टी में होता है, अंकुरित होकर बाहर
हवा (वायु) गुरू ढूंढने के लिए बाहर आता है।  इसी प्रकार ही समस्त सृष्टि की उत्पति होती है। अतः यह सारा सामराज गुरू का ही है।

इसके प्रभावाधीन जातक दानी, उदार, ज्ञानी, विद्वान, शान्त स्वभाव, परोपकारी, सामाजिक कार्यकर्ता, राज्य अधिकारी, न्यायप्रेमी, सहनशील, गरीबों का साहयक, ईश्वर भक्त, चतुर, योगाभ्यासी तथा  सहनशील बनता है। गुरू के प्रभावाधीन जातक को मान-सम्मान, धन-दौलत, सन्तान, सम्पति तथा तरक्की मिलती है। इसके लिए न तो हार्थी उर्पाजन करना पड़ता है और न ही चालाकी अथवा बेशिमारी की आवश्यकता पड़ती हैं। सब काम स्वतः बनने लगते हैं। यदि गुरु बलहीन अथवा अशुभ होगा तो इश्क की ओर झुकाव, प्यार-प्रेम के कारण कार्यों में बाधा और सन्तान विहीन अथवा सन्तान सुख से वंचित करने जैसे अशुभ फल देगा।

7. शनि

शनि मकर एवं कुम्भ राशि का स्वामी है तथा नैसर्गिक कुण्डली में यह दशम व एकादश भाव का भी स्वामी होता है। दशम भाव पिता, रोजगार, कारोबार, परिश्रम, मान-सम्मान आदि से सम्बन्धित है। शनि इन सब पर प्रभाव डालता है। शनि को सर्य के इर्दगिद.चक्कर लगाने में 2911, वर्ष लगते हैं तथा राशि मक्र को यह लगभग 29 वर्ष 40 दिन में पूरा कर लेता है प्रत्येक वर्ष यह लगभग 31/ मास वक्रीय रहता है। शास्त्रों में इसे सूर्य पुत्र माना गया है। जो अधिक परिश्रम करता है, शनि उसकी सहायता करता है।

गोचर में जब भी शनि वक्रीय होता है तो महत्वपूर्ण प्रभाव डालता है। ऐसी स्थिति में श्रमिकों में बेचैनी आम देखी गयी है। जन्म कुण्डली में जब गोचर का शनि वक्रीय होता है तो नौकरी में परिवर्तन तथा अन्य नौकरी से सम्बन्धित घटनाएं जो परेशान करने वाली होती है, घटित होती है, शनि वक्रीय के समय मिली नौकरी भी अस्थाई सिद्ध हाती है। ऐसे समय में नौकरी अथवा व्यवसाय में परिवर्तन करना भी हानिकारक रहता है।

शनि मात्र सांसारिक कार्य-कलापों नौकरी, सेवा आदि का ही द्योतक नहीं अपितु जो कार्य इस जीवन में जीव के करने हेतु ईश्वर ने भेजा है, उसका भी सूचक है। इसीलिए शनि तुला राशि में उच्च का है। तुला राशि का स्वामी शुक्र सांसारिक कार्यों का मुखिया भी है। सत्य और सत्य जीवन दोनों में सन्तुलन बनाए रखना इसी का ही कार्य है। जो इस सन्तुलन को समझ जाता है, वह दुनिया के इस भव-सागर से पार हो जाता है।

शनि बलवान हो तो कठोर, दृढ़, गम्भीर, कम बोलने वाला,. हिसाब-किताब से खर्च करने वाला, उधमी तथा अच्छे स्वभाव कला वकता है। शनि निर्बल हो तो चिन्ता, कष्ट, क्रोध तथा दुष्ट स्वभाव बनाता है। शनि के भय, मृत्यु, उदासीनता जानी जाती है। जिस स्थान को देखता है हानि करता है तथा कार्य में बाधा एवं विघ्न डालता है।

8. राहू

यह राशिचक्र में कल्पित बिन्दु स्थान ही है। इसे शास्त्रों ने छाया ग्रह माना है। यह किसी राशि का स्वामी तो नहीं परन्तु जिस राशि एवं नक्षत्र में होता है, अथवा जो ग्रह इस पर दृष्टि डालता है या ‘ इससे दष्टि सम्बन्ध बनाता है, उसके अनुसार ही फल प्रदान करता है, यह सदैव वक्रीय चलता है और राशि चक्र पूरा करने में लगभग 18 वर्ष लगाता है। यह एक राशि में लगभग 18 मास रहता है।

इसका रंग काला, नीला है। यदि बुध मस्तिष्क का ढांचा माना गया है तो राह उसमें हरकत का कारक है। इसकी तुलना सांप से भी की गई है। यदि राहू सांप का मुँह है तो केतू को साँप ही पूंछ माना गया है। यह धूआं, रसोई आदि का भी कारक माना गया है। यह दुष्ट ग्रह माना गया है तथा ये शनि जैसा ही प्रभाव देता है। ये डॉक्टर, जोल, विघत, इलैक्ट्रानिक, विस्तार के विपरीत सिकुड़न, विघ्न डर,भय, भ्रम, बहम, गन्दी नाली तथा वियोग आदि का सूचक है। ये जिस भी ग्रह के साथ होता है, उसके फल में अत्यधिक वृद्धि कर देता है।

यदि ये शुक्र के साथ हो तो शुक्र के प्रभाव, फल आदि प्यार, मुहब्बत, सौन्दर्य के वृद्धि कर देगा। जातक के मन-मस्तिष्क में प्यार, मुहब्बत सुन्दर वस्तुओं की नकली-हरकत अत्यधिक में उलझ जाएगा। यह सूर्य को ग्रहण एवं चन्द्रमा को क्षीण करता है। पृथ्वी व सूर्य के बीच चन्द्र आ जाने पर सूर्य ग्रहण तथा सूर्य व चन्द्र के बीच पृथ्वी आ जाने पर चन्द्र ग्रहण हो जाता है। ऐसी स्थिति में इसका पूर्ण प्रभाव माना गया .

9. केतु

राहू की तरह यह भी छाया ग्रह है। ये जिस राशि, नक्षत्र अथवा जिस ग्रह के साथ दृष्टि सम्बन्ध बनाता है। उसी प्रकार का ही ये प्रभाव देता है। शास्त्रों के अनुसार केतू मोक्ष का कारक माना गया है। यह सदैव वक्रीय रहता है। राहू, केतू एक दूसरे से सतवें रहते हैं

अर्थात् ये एक दूसरे से सदैव 180 अंश की दूरी प राहू,केतू एक दूसरे के साथ कभी नहीं छोड़ते तथा इसी स्थिा देखे जा सकते हैं। केतू पूर्ण राशि चक्र पूरा करने में 18 व है तथा यह एक राशि में लगभग 18 मास रहता है। राहू को सिर तो केत को छड माना गया है। राहू दिमाग हरकत का मालिक है तो केत पाओं की नक्लों हरकत का नाम केतू की भी संज्ञा दी गई है। ये मंगल प्रभाव करता है। ये चन्द्रमा के लिए ग्रहण होता है अतः चन्.. पर बुरा प्रभाव डालता है। यह अनभव में देखा गया है कि कुण्डली में शुक्र केतु साथ-साथ होते हैं। तो जातक को शक जाता है। यदि यह कुण्डली के चतर्थ भाव में होंगे तो अवश्य ही शर्करा रोग होगा।

।। श्री नवग्रह चालीसा ।।

॥दोहा॥
श्री गणपति गुरुपद कमल, प्रेम सहित सिरनाय।
नवग्रह चालीसा कहत, शारद होत सहाय।।
जय जय रवि शशि सोम बुध जय गुरु भृगु शनि राज।
जयति राहु अरु केतु ग्रह करहुं अनुग्रह आज।।

।। श्री सूर्य स्तुति ।।
प्रथमहि रवि कहं नावौं माथा, करहुं कृपा जनि जानि अनाथा।
हे आदित्य दिवाकर भानू, मैं मति मन्द महा अज्ञानू।
अब निज जन कहं हरहु कलेषा, दिनकर द्वादश रूप दिनेशा।
नमो भास्कर सूर्य प्रभाकर, अर्क मित्र अघ मोघ क्षमाकर।

।। श्री चन्द्र स्तुति ।।
शशि मयंक रजनीपति स्वामी, चन्द्र कलानिधि नमो नमामि।
राकापति हिमांशु राकेशा, प्रणवत जन तन हरहुं कलेशा।
सोम इन्दु विधु शान्ति सुधाकर, शीत रश्मि औषधि निशाकर।
तुम्हीं शोभित सुन्दर भाल महेशा, शरण शरण जन हरहुं कलेशा।

।। श्री मंगल स्तुति ।।
जय जय जय मंगल सुखदाता, लोहित भौमादिक विख्याता।
अंगारक कुज रुज ऋणहारी, करहुं दया यही विनय हमारी।
हे महिसुत छितिसुत सुखराशी, लोहितांग जय जन अघनाशी।
अगम अमंगल अब हर लीजै, सकल मनोरथ पूरण कीजै।

।। श्री बुध स्तुति ।।
जय शशि नन्दन बुध महाराजा, करहु सकल जन कहं शुभ काजा।
दीजै बुद्धि बल सुमति सुजाना, कठिन कष्ट हरि करि कल्याणा।
हे तारासुत रोहिणी नन्दन, चन्द्रसुवन दुख द्वन्द्व निकन्दन।
पूजहिं आस दास कहुं स्वामी, प्रणत पाल प्रभु नमो नमामी।

।। श्री बृहस्पति स्तुति ।।
जयति जयति जय श्री गुरुदेवा, करूं सदा तुम्हरी प्रभु सेवा।
देवाचार्य तुम देव गुरु ज्ञानी, इन्द्र पुरोहित विद्यादानी।
वाचस्पति बागीश उदारा, जीव बृहस्पति नाम तुम्हारा।
विद्या सिन्धु अंगिरा नामा, करहुं सकल विधि पूरण कामा।

।। श्री शुक्र स्तुति।।
शुक्र देव पद तल जल जाता, दास निरन्तन ध्यान लगाता।
हे उशना भार्गव भृगु नन्दन, दैत्य पुरोहित दुष्ट निकन्दन।
भृगुकुल भूषण दूषण हारी, हरहुं नेष्ट ग्रह करहुं सुखारी।
तुहि द्विजबर जोशी सिरताजा, नर शरीर के तुमही राजा।

।। श्री शनि स्तुति ।।
जय श्री शनिदेव रवि नन्दन, जय कृष्णो सौरी जगवन्दन।
पिंगल मन्द रौद्र यम नामा, वप्र आदि कोणस्थ ललामा।
वक्र दृष्टि पिप्पल तन साजा, क्षण महं करत रंक क्षण राजा।
ललत स्वर्ण पद करत निहाला, हरहुं विपत्ति छाया के लाला।

।। श्री राहु स्तुति ।।
जय जय राहु गगन प्रविसइया, तुमही चन्द्र आदित्य ग्रसइया।
रवि शशि अरि स्वर्भानु धारा, शिखी आदि बहु नाम तुम्हारा।
सैहिंकेय तुम निशाचर राजा, अर्धकाय जग राखहु लाजा।
यदि ग्रह समय पाय हिं आवहु, सदा शान्ति और सुख उपजावहु।

।। श्री केतु स्तुति ।।
जय श्री केतु कठिन दुखहारी, करहु सुजन हित मंगलकारी।
ध्वजयुत रुण्ड रूप विकराला, घोर रौद्रतन अघमन काला।
शिखी तारिका ग्रह बलवान, महा प्रताप न तेज ठिकाना।
वाहन मीन महा शुभकारी, दीजै शान्ति दया उर धारी।

।। नवग्रह शांति फल ।।
तीरथराज प्रयाग सुपासा, बसै राम के सुन्दर दासा।
ककरा ग्रामहिं पुरे-तिवारी, दुर्वासाश्रम जन दुख हारी।
नवग्रह शान्ति लिख्यो सुख हेतु, जन तन कष्ट उतारण सेतू।
जो नित पाठ करै चित लावै, सब सुख भोगि परम पद पावै।।

।। दोहा ।।
धन्य नवग्रह देव प्रभु, महिमा अगम अपार।
चित नव मंगल मोद गृह जगत जनन सुखद्वार।।
यह चालीसा नवोग्रह, विरचित सुन्दरदास।
पढ़त प्रेम सुत बढ़त सुख, सर्वानन्द हुलास।।

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