अगर आज हमारे देश की महिलाएं इतनी सशक्त और पढ़ी लिखी हैं, तो उसके पीछे सिर्फ एक इंसान का हाथ हैं। और वह नाम हैं सावित्रीबाई फुले जी का। जब तक वह इस दुनिया मे रही, तब तक उन्होंने ऐसा कोई भी कार्य नहीं करना छोड़ा जिससे की आगे आने वाले समय मे औरतों को कमज़ोर रहना पड़े। या फिर यह समझा जाए की वह सिर्फ और सिर्फ घर के कामों के लिए हीं बनी हैं। लेकिन बहुत हीं कम लोगो को यह बात मालूम होंगी की उन्होंने और उनके बेटे ने देश की सेवा करते हुए अपनी जान गवा दी थी। आइये नज़र डालते हैं उस हादसे पर और जानते हैं उनकी जिंदगी के बारे मे।
उनका जीवन
सावित्रीबाई का जन्म 3 जनवरी, 1831 मे हुआ था। उन्होंने अपनी ज़िन्दगी मे औरतों के प्रति बहुत सारे किरदार निभाए। पर असल ज़िन्दगी मे वह एक समाज सुधारक, महिला शिक्षिका और मराठी कवियत्री थी। उन्होंने जो भी औरतों के लिए संघर्ष किया वह उन्होंने अकेले नहीं बल्कि अपने पति, ज्योतिराव गोविन्द राव फुले के साथ मिलकर किया था। उन्होंने अपने जीवनकाल मे महिलाओ के लिए 1852 मे एक स्कूल की भी स्थापना की थी।

देश के लिए दिया बलिदान
हर देश मे, हर समाज मे एक ऐसा इंसान ज़रूर होता हैं जो अपने प्राणो की चिंता किये बगैर हीं अपने देश की सेवा करता हैं। हम बात करने जा रहे हैं उस समय की जब भारत मे ‘बुबोनिक प्लेग’ नाम की महामारी फैली थी। यह बात 1896-97 की हैं। इसको ब्लैक डेथ के नाम से भी जाना जाता हैं और ये सारी महामारियों का सबसे ख़तरनाक रूप था। उस समय यह इतनी ख़तरनाक तरीके से फैली थी की हर हफ्ते कुछ नहीं तो 1900 लोग अपनी जान गवा देते थे।
सावित्रीबाई मुंडवा के महार बस्ती मे रहती थी। महामारी का समय था, तभी उनका सामना एक 10 साल के बच्चे से हुआ जो महामारी का शिकार था। उन्होंने तुरंत हीं उस बच्चे को अस्पताल ले जाने की तैयारी की और वह उसको पुणे शहर के बाहर स्थित एक क्लिनिक मे ले गयी। वह वहां तक आराम से पहुंच तो गयी और बच्चे का भी इलाज हो गया। परन्तु, तब तक वह खुद उस बीमारी का शिकार बन चुकी थी। और उसी के चलते 10 मार्च, 1897 मे उनकी मृत्यु हो गयी।
जातिवाद की भी नहीं की चिंता
उन्नीसवीं सदी में जातिवाद का बहुत हीं ज़्यादा चलन था। परन्तु अंग्रेजी राज होने के वजह से उन सब चीज़ो पर ज़्यादा ध्यान ना देते हुए मरीज़ो का इलाज किया जा रहा था। उस समय बहुत से ब्राह्मण वास्तव में डॉक्टरों के रूप में प्रशिक्षित होने से बचते थे क्योंकि वे शूद्र और दलित समुदायों के रोगियों का इलाज करने के लिए तैयार नहीं थे। ऐसे समय में सावित्री बाई ने अपने बेटे यशवंत राव से अस्पताल खोलने को कहा।
आपको बता दे की यशवंत राव उनके गोद लिए हुए पुत्र थे और व्यवसाय से एक डॉक्टर। उन्होंने पुणे के बाहर एक अस्पताल का निर्माण किया था। उसी दौरान सावित्री बाई को वह बच्चा मिला और उनकी मृत्यु हो गई थी। परन्तु, उनके बेटे बच गए थे और उनकी भी मृत्यु इसी महामारी का इलाज करते हुए, उनकी माँ की मृत्यु के 8 साल बाद हो गई थी।
इसी तरह दोनों माँ बेटे ने अपनी जान देश के नाम कुर्बान कर दी। आज कोरोना से लड़ते हुए भी हमारे देश के डॉक्टर और पुलिस वाले आए दिन अपनी जान कुर्बान करते रहते हैं। हम सब बस उनसे इतना हीं कहना चाहते हैं की आप सब बहुत अच्छा कम कर रहे हैं। हमारे देश की दुआएं आपके साथ हैं और हमेशा रहेंगी भी।
great work