आए दिन हमारा सामना कुछ ऐसे लोगो के साथ हो ही जाता हैं जो की अपने साथ एक ऐसी ऊर्जा को लेकर चलते हैं जिससे की हमे अधिक से अधिक मात्रा में सीख प्राप्त होती हैं। उनके कार्य हमारे देश का नाम और गर्व के साथ और ऊंचा कर देते हैं। चाहे वो सरहद पर रहने वाले वीर जवान हो या फिर एक आम ज़िन्दगी जीने वाली महिला या कोई और भी सब कुछ ना कुछ अपने हिसाब से करते ही रहते हैं।
अगर आज से बहुत वर्ष पहले देखा जाए तो हम ज्यादातर परुषो की ही वाह वाही सुनते आए हैं। लेकिन आज महिलाओ ने भी यह बात साबित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी हैं कि वह भी किसी से कम हैं और अगर कुछ करने पर आती हैं तो देश का नाम रोशन करके ही वापस आती हैं।
उदहारण के रूप में हम आपके सामने कुछ ऐसी महिलाओ के नाम रखने वाले हैं, जिनको सुन कर भी आपके मन में एक सम्मान से भरी भावना प्रकट हो जाएगी- कल्पना चावला, सरोजनी नायडू,पी टी ऊषा, लता मंगेशकर, सालूमरदा थिमिक्का इत्यादि।
लेकिन आज हम इस पंक्ति में एक और नाम जोड़ना चाहते हैं। वह एक ऐसा नाम हैं जिसने ये साबित कर दिया हैं की हर कार्य करने के लिए पैसे की जरुरत नहीं होती। जी हाँ, आप बिलकुल सही समझें हैं, उनका नाम हैं सुभाषिनी मिस्त्री। चलिए अब आज की दास्तां की शुरुआत करते हैं।
उनका संघर्ष भरा हुआ जीवन
सुभाषिनी जी पश्चिमी बंगाल की निवासी हैं। वह बहुत ही गरीब परिवार से ताल्लुकात रखती हैं। लेकिन इतना गरीब होने के बावजूद भी उन्होंने लोगो की सेवा करने में कोई कमी नहीं छोड़ी हैं। और इसी सेवा के चलते, उन्हें कुछ ही दिन पहले पद्म श्री पुरस्कार से समान्नित किया गया हैं।
आपको बतादे की उनकी उम्र 75 साल हैं और इतनी बुजुर्ग होने के बावजूद भी उन्होंने इस उम्र में अपना जज़्बा कायम रखा हुआ हैं। वह हमेशा से ही गरीबो के लिए एक अस्पताल बनवाना चाहती थी। लेकिन इस कार्य को करने के लिए वह सक्षम नहीं थी, क्योकि उनके पास उस समय उतने पैसे नहीं थे। लेकिन फिर भी उन्होंने उसको अंत में जैसे-तैसे मेहनत कर के बनवा ही दिया।
उनका जन्म 1943 में हुआ था। उस समय बंगाल में भुखमरी छा रखी थी। हर जगह आकाल पड़ चुका था। और लोगो के पास खाने के लिए एक वक़्त का अनाज भी नहीं था। ऐसी भनायक स्थिति में वह 14 भाई-बहनो में से एक थी। परन्तु, भुखमरी होने के कारण उनके 7 भाई-बहन चल भी कुछ समय बाद चल बसें थे। और इन सब हालातों के चलते-चलते उनकी जल्द ही शादी करा दी गयी थी।
कैसे हुई संघर्ष की शुरुआत
उनके ऊपर मानो दुखो के पहाड़ ही टूट पड़े थे। भाई-बहन के चल बसने का दुख तो सीने में दबाये हुए वह चल ही रही थी। साथ-साथ 1971 में उनको पति के मारने का भी दुख अपने कलेजे के अंदर दबाना पड़ा। उनके पति की मृत्यु किसी बीमारी के इलाज के ना हो पाने के कारण हुई थी। लेकिन उनकी ज़िन्दगी सिर्फ यहीं पर नहीं रुकी। उनके सर पर चार बच्चो को पालने की ज़िम्मेदारी भी थी जो अब उन्हें अकेले ही संभालनी थी। गरीबी के चलते उनके लिए यह कार्य बहुत ही ज़्यादा कठिनाईयों से भर चुका था।
इसके चलते फिर उनके दिमाग़ में एक अस्पताल बनवाने का ख्याल आया। वह यह चाहती थी की अस्पताल ऐसा हो जहाँ गरीबो का मुफ्त में इलाज किया जाए। उनको हर प्रकार की सुविधा का लाभ मिले और किसी प्रकार की दिक्कत ना हो।वह यह कार्य इसीलिए करना चाहती थी क्योकि वह अपने पति को आँखों के सामने मरते हुए देख कर एक बात तो समझ चुकी थी की उनकी ही तरह और भी गरीब लाचार लोग इस दुनिया में होंगे। जो की अपने चाहने वाले लोगो का इलाज पैसे ना होने के कारण नहीं करवा पाते होंगे। और ना चाहते हुए भी उन्हें उनको मरते हुए देखना पड़ता होगा।
अस्पताल के ईमारत की सबसे पहली ईट
करीब 20 साल तक उन्होंने कड़ा संघर्ष किया और पैसे इक्कठा किये। वह लोगो के जूते पोलिश करती थी और साथ ही में सब्जी बेचती थी। पैसे इक्कठा होने के बाद उन्होंने हंसपुकुर गांव में वापस जाकर 10,000 रुपये में तकरीबन 1 एकड़ ज़मीन खरीद ली। फिर वहां पर सुविधा चालू कराने के लिए माइक और लॉउडस्पीकर की सहायता से डॉक्टरों से मदद की गुहार लगाई गयी। मदद के रूप में उन्होंने शहर शहर जाकर उनसे फ्री में इलाज करने के हित में मदद मांगी। उन लोगो की विनती सुन कर डॉक्टर इलाज करने को तैयार हो गए।
पहले दिन वहां पर करीबन 252 लोगो का इलाज किया गया था। समय के साथ-साथ अब यह अस्पताल लगातार तरक्की की तरफ आगे बढ़ रहा है। अब यह अस्पताल तकरीबन 9000 स्कवायर फीट के सीमा में बना हुआ है।
उनकी सोच की तरफ एक झलक
सुभाषिनी जी का यह मानना हैं की जितना हो सके वह उतना ही ज़्यादा गरीब लोगो को मुफ्त में सुविधाएं उठाने का लाभ प्रदान करें। वह ये भी कहती हैं कि उनको 24 घंटे गरीबो को सुविधाएं प्राप्त करवानी हैं। यहाँ पर उन लोगो का भी इलाज किया जाता हैं जो गरीबी रेखा से ऊपर हैं। उनसे मात्र 10 रूपए का शुल्क, फीस के रूप में लिया जाता हैं।
लेकिन वह बस यह चाहती हैं कि एक दिन उनका यह अस्पताल हर तरीके की सुविधाएं पहुंचाने के काबिल बनें। उनकी इस सोच और जज़्बे को सलाम करते हुए देश उन्हें पद्म श्री जैसे पुरुस्कार के साथ सम्मानित भी किया हैं।
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