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उमाबाई कुंडापुर: एक गुमनाम नायिका जिसने अपना पूरा जीवन देश को समर्पित कर, आज़ादी के बाद भी सुख नहीं भोगा

January 21, 2021
in मोटिवेशनल
उमाबाई कुंडापुर: एक गुमनाम नायिका जिसने अपना पूरा जीवन देश को समर्पित कर, आज़ादी के बाद भी सुख नहीं भोगा
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आज जो हम स्वतंत्रता का जीवन जी रहे है, जो साँसे ले रहे है वह सब ऋण है उन लोगो का जिन्होंने इस मातृभूमि के लिए, हमारे भविष्य के लिए अपने वर्तमान को, उस समय की क्रान्ति की आग में झोंक दिया था। इतिहास में ऐसे कई अन कहे वीर-वीरांगना, नायक-नायिका है जिन्हे शायद आज हम नहीं जानते पर उनके समर्पण को, त्याग को कभी भुलाया नहीं जा सकता। शायद इतिहास में उनका उल्लेख भी न मिले, पर इस मातृभूमि को अपने खून-पसीने से सींचा है उन्होने।

आज हम ऐसी ही एक गुमनाम नायिका के बारे में बात करेंगे जिन्हे शायद इतिहास में वो स्थान नहीं मिला जो उन्हें मिलना चाहिए था। उनका नाम है उमाबाई कुंडापुर। वह एक ऐसी साहसी महिला थी जिन्होंने औरतो को घर की चार दीवारी से बाहर निकाल कर, स्वतंत्रता संग्राम में जुड़ने जैसे महान कार्य में अहम भूमिका निभाई थी।

उनका जन्म मैंगलोर में 1892 में हुआ था। उनकी माता का नाम जुंगबाई और पिता का नाम गोलिकेरी कृष्ण राव था । उनके मायके का नाम भवानी गोलिकेरी था। उनका परिवार मैंगलोर से मुंबई जा कर बस गया था। वहां उनका विवाह काफी कम उम्र में संजीव राव कुंदपुर से हुआ । उनके ससुर आनंदराव कुंदपुर एक सुधारवादी, प्रगतिशील विचारक और महिलाओं के उत्थान में दृढ़ विश्वास रखने वाले व्यक्ति थे। उनके प्रोत्साहन के तहत, उमाबाई ने शादी के बाद भी शिक्षा जारी रखी। पढाई पूरी होने के पश्चात उन्होंने मुंबई में गौंडवी महिला समाज के माध्यम से महिलाओं को शिक्षित करने में अपने ससुर आनंदराव कुंदपुर की मदद की। उनका उद्देश्य सदैव ही स्त्रियों को शिक्षित करना, उन्हें आत्मनिर्भर बनाने का था। अभी तक वह सक्रिय रूप से किसी प्रकार के स्वतंत्रता संग्राम से सीधे तौर पर नहीं जुडी थी।

इसके बाद एक ऐसी घटना घटी जिसने उनके जीवन को पूर्णतः बदल के रख दिया था। साल 1920 में बाल गंगाधर तिलक जी की मृत्यु ने उन पर एक स्थायी छाप छोड़ी दी थी। तिलक जी की मृत्यु पर जब शवयात्रा निकली तो मानो पूरा मुंबई ही सड़को पे उतर आया था और उसमे उमाबाई व उनके पति भी मौजूद थे। । उन दिनों कांग्रेस संगठन और स्वैच्छिक सेवा अनुकरणीय थी और उमाबाई स्वतंत्रता संग्राम की ओर आकर्षित हुईं और स्वयंसेवक बन गई । तिलक जी की मृत्यु, उनके हृदय में एक देश प्रेम की एक ज्योति जला गयी।

उन्होंने कांग्रेस से जुड़ने का फैसला लिया व उसमे शामिल हो गयी। उन्होंने खादी के इस्तमाल को पुरोत्साहित करना शुरू किया , व जागरूकता फैलाई। उन्होंने घर-घर जाकर महिला स्वयंसेवकों की भर्ती करना प्रारम्भ कर दिया। उन्होंने स्वदेशी पर नाटक लिखा। उन्होंने राजनैतिक गतिविधियों में पति और ससुर का बहुत सहयोग किया व उनके साथ कंधे से कन्धा मिला कर चली। उनके ससुराल पक्ष के लोगो ने उनका बहुत साथ दिया, उन्हें स्वावलम्बी, व निर्भीक बनाने में पुरोत्साहित किया। पर यह सुख की घड़िया ज्यादा लम्बे समय तक नहीं चल पायी। जब उमाबाई मात्र 25 वर्ष की थी तब ही उनके पति का टी.बी. के चलते देहांत हो गया। उमाबाई टूट चुकी थी, इतने कम उम्र में अपने जीवनसाथी को खोना, बहुत बड़ा आघात था उनके लिए। इस बीच उनके पिता सामान ससुर ने उन्हें साहस दिया, ढाढस बंधाया।

इसके उपरान्त उमाबाई ने निश्चय कर लिया कि वह मुंबई छोड़ कर हुबली चली जाएँगी जहां उनके परिवार की काफी सम्पत्ति व फैक्ट्री थी।

अब आनंद राव और उमाबाई हुबली आ गए थे, जहाँ उन्होंने कर्नाटक प्रेस की शुरुआत की। उन्होंने वहां लड़कियों के लिए एक स्कूल भी शुरू किया, जिसका नाम था ‘तिलक कन्या शाला’, जिसका नेतृत्व स्वयं उमाबाई ने किया। वहां वह एक और राष्ट्रवादी महिला से मिली जिनका नाम था कृष्णाबाई पंजीकर, उनके साथ मिलकर उमाबाई ने ‘भगिनी समाज’ नामक एक संगठन की स्थापना भी की।

इन सभी कार्यो के बीच उन्होंने कांग्रेस से अपना नाता नहीं तोड़ा था। वह एक सक्रिय स्वयंसेवक के रूप में कर्नाटक में काम करने लगी। उनकी लोकप्रियता वहां काफी बढ़ गयी थी, वह महिलाओं को स्वतंत्रता संग्राम से जुड़ने में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभा रही थी। इस बीच उनकी मुलाकात डॉ एन.एस. हार्डिकर से हुई। डॉ एन.एस. हार्डिकर, उमाबाई से काफी प्रभावित हुए। जब 1921 में, डॉ एन.एस. हार्डिकर ने युवाओ को संगठित करने के लिए ‘हिंदुस्तानी सेवा दल’ शुरू किया और हुबली इसकी गतिविधियों का केंद्र बन गया। उमाबाई हिंदुस्तानी सेवा दल की महिला शाखा की नेता बना दी गयी। उन्होंने इसके अंतर्गत घर घर जा कर महिलाओं को प्रेरित व जागरूक किया। उनके प्रयासों के कारण हज़ारो महिलाएं , चाहे वह विधवा हो, ग्रहणी हो, युवा हो, हर तबके की महिलाएं उनके साथ जुड़ती चली गयी।

बेलगाम में 1924 की अखिल भारतीय कांग्रेस अधिवेशन एक ऐतिहासिक घटना के रूप में प्रदर्शित हुई। वह एकमात्र समय था जब गांधीजी ने अधिवेशन की अध्यक्षता की और डॉ हार्डिकर और उमाबाई को इस राष्ट्रीय कार्यक्रम का आयोजन करने की ज़िम्मेदारी मिली जो की एक बड़ी चुनौती थी। उमाबाई ने पूरे राज्य का दौरा करते हुए 150 से अधिक महिला स्वयंसेवकों की भर्ती की।

1932 में, उमाबाई को चार महीने की जेल हुई और उसे यरवदा में रखा गया। इस बीच अपने बूढ़े और बीमार ससुर की मौत की खबर, जो उनका एकमात्र भावनात्मक समर्थन, व सहारा थे उनके पास पहुंची। वह पूरी तरह बिखर गयी थी, सरोजिनी नायडू जी जो उस समय उस ही जेल में थीं, उन्होंने उमाबाई को सांत्वना देने की पूरी कोशिश की । जब उमाबाई अपने जेल अवधि के बाद वापस आई, तो ब्रिटिश सरकार ने उनके ससुर की कर्नाटक प्रेस को जब्त कर लिया था और स्कूल को सील कर दिया गया था। ‘भागिनी मंडल’ जो स्वैच्छिक संगठन था, उसे भी गैरकानूनी घोषित कर दिया गया था। लेकिन उमाबाई पीछे नहीं हटी, उन्होंने हार नहीं मानी।

उन्होंने निश्चय किया की अब से वह स्वतंत्रता सेनानियों की मदद करेंगी ,उनका छोटा घर सभी प्रकार के स्वतंत्रता सेनानियों के लिए आश्रय बन गया था। सबको उनके घर के विषय में पता था। जब भी कोई स्वतंत्रता सैनिक जेल से छूटता, या अंग्रेजी प्रसाशन से छुप रहा होता तो, उमाबाई उन्हें आश्रय देती व आर्थिक तौर पर भी सहायता करती। 1942 में जब भारत छोड़ो आंदोलन चरम पर था तब एक और चुनौती पेश हुई उनके समक्ष। कई भूमिगत कार्यकर्ता भोजन और आर्थिक मदद की मांग करते हुए उमाबाई के हुबली स्थित घर पर निर्विवाद रूप से उपस्थित हुए। उमाबाई ने एक बड़े जोखिम के साथ सभी की मदद की।

1946 में महात्मा गांधी ने खुद उमाबाई को कस्तूरबा ट्रस्ट की कर्नाटक शाखा के प्रमुख के रूप में नियुक्त किया। यह ग्रामीण लोगो के लिए स्वास्थ्य, बाल-कल्याण, शिक्षा व ग्राम सेविकों को प्रशिक्षित करने हेतु बनाया गया एक कार्यक्रम था।

उमाबाई कर्नाटक में एक घरेलू नाम बन गई। हर व्यक्ति उन्हें जानने लगा था। कांग्रेस में हर बड़ा नेता उनके विषय में जानता था।
भारतीय स्वतंत्रता के बाद, वह आसानी से राजनीति में प्रवेश कर सकती थी और कई प्रतिष्ठित पदों पर आसित हो सकती थी, लेकिन वह सिर्फ एक कार्यकर्ता के रूप में ही बनी रही।

उन्होंने कई पुरस्कारो को व पेंशन को भी नकार दिया। वह अपने सम्मानित ससुर की याद में निर्मित एक घर “आनंद-स्मृति” में रहती थी। उनकी सरलता अद्वितीय थी। अपना पूरा जीवन देश को समर्पित करके भी, आज़ादी के पश्चात किसी सुख को नहीं भोगा। सादगी की पराकाष्ठा है वो।

साल 1992 उनकी मृत्यु हो गयी। सही मायनों में इस मातृभूमि की बेटी थी वो। आज इस लेख द्वारा हम उनका सम्मान करना चाहते है। онлайн займ

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