एक इंसान की ज़मीन से शिखर तक की उड़ान

“असफलता से सफलता का सृजन कीजिये. निराशा और असफलता, सफलता के दो निश्चित आधार स्तम्भ हैं।”

ये पंक्ति डेल कार्नेगी द्वारा कही गयी  है।

यह वृत्तान्त एक ऐसे इंसान का है जिसने इस पंक्ति को सही ठहराया है।  यह वृत्तान्त है मन्नम  मधुसूदन राव का। एक ऐसी कहानी जिसमे एक महान जोखिम है , संघर्ष है , सफलताएं और असफलताएं जिनके माध्यम से उन्होंने दृढ़ता से काम किया है,  ज़मीन से आसमान  का सफर है।

मधुसूदन राव का जन्म एक गरीब व पिछड़े जाति के परिवार में आँध्रप्रदेश के प्रकाशम जिले में हुआ। जहाँ पढ़ाई से ज्यादा रोटी मायने रखती थी। यह परिवार प्रकाशम जिले के मुख्यालय ओंगोले से 12 किमी दूर पलुकुरु में रहता था। उनके पिता जिनका नाम पेरय्या था  वह  बंधुआ मजदूरी का काम करते थे।  उन्हें यह मजदूरी विरासत के रूप में मिली थी अपने पिता रामैया की जगह जब वह उम्र के कारण  काम करने में असमर्थ थे। मधुसूदन राव के घर उन्हें मिला के घर में आठ भाई बहन थे, और कमाने वाले सिर्फ एक, उनके पिता। घर में पैसो की तंगी के चले मधुसूदन राव की माँ जिनका नाम  रामुलम्मा था उन्होंने काम करने का निश्चय किया।  तम्बाकू उत्पादन के केंद्र के रूप में, ओंगोल शहर जहाँ तम्बाकू के पत्तों की ग्रेडिंग, उन्हें व्यापार करना और सिगार बनाना मुख्या  कार्य है उन्हें वहां  काम मिल गया।  इतना सब करके भी उनके यहाँ खाने को ज्यादा पैसे नहीं रहा करते थे। अधिकतर उनका  परिवार उबले हुए ज्वार और लाल मिर्च की चटनी खाया करते थे।

घर में कोई पढ़ा लिखा नहीं था लेकिन माँ बाप ने फैसला किया की वो घर में दोनों बेटों को पढ़ायेगे और इसलिए  मधुसूदन राव और उनके भाई का दाखिला गाँव के स्कूल  में  करवाया गया। वह  पढाई में अच्छे थे एवं अपनी कक्षाओं में सदैव अच्छे अंको से उत्तीर्ण  थे।  बारवही कक्षा के बाद मधुसूदन राव के भाई माधवराव को बी.टेक करवाई गयी। जब तक मधुसूदन राव ने बारहवीं कक्षा उत्तीर्ण की तब पैसो की कमी के चलते वह  बी.टेक नहीं कर पाए और फिर अपने अध्यापक से  विचार विमर्श करके तिरुपति के श्री वेंकटेश्वरा विश्वविद्यालय में दाखिला लिया, मधुसूदन ने 2 साल तिरुपति और एक साल ओंगोल में पढ़ाई कर पॉलिटेक्निक डिप्लोमा हासिल कर लिया।

छात्रों को अपने पाठ्यक्रम पूरा करने के बाद छात्रावास को खाली करने की आवश्यकता होती है। माधवराव और मधुसूदन राव को अब अपने हॉस्टल को छोड़ना पड़ा  और उनके पास कोई नौकरी भी नहीं थी।  उन दोनों ने कई जगह नौकरी हेतु आवेदन किया पर हर जगह से उन्हें निराशा ही हाथ लगी। आखिरकार उन्हें नौकरी न मिलने पर उन्होंने वापस घर जाने का फैसला किया। एक कस्बे में वर्षों तक रहने के बाद, उन्होंने एक शहरी जीवन शैली अपनाई थी। ज्यादातर ग्रामीणों ने सोचा कि यह दोनों भाई पहले ही सरकारी अधिकारी बन चुके हैं। महीनो तक वह गांव में ही रहे इस पर पूरा परिवार उनकी आशा कि दोनों को सरकारी नौकरी मिल जाएगी, हर गुजरते दिन के साथ निराशा बनती जा रही थी ।

उन्होंने महसूस किया कि अगर वे गाँव में रहेंगे तो नौकरी नहीं मिल पाएगी, उन्हें शहर जाना होगा।  उन्होंने हैदराबाद जाने का फैसला किया जहां  पहले सी उनकी बड़ी बहन शादी के बाद रहती थी।  वह किसी तरह पुरानी चिट्ठी से पता ढूंढ़ते हुए वहां पहुँचे। उनकी बहन उनके देख के काफी खुश हुई और उन्हें नौकरी न मिलने तक आश्रय देने की सहमति दी । मधुसूदन राव की बहन अपने पति के साथ वहां मजदूरी ही करती थी, वह एक निर्माण स्थल के नज़दीक जहाँ अधिकांश मजदूर रहते थे वही  श्रमिकों के लिए बने झोपड़े में रहती थी। मधुसूदन राव ने वहां एक नौकरी की, जिसमें नई बनी दीवारों पर पानी के छींटे डालने का काम था। सुबह और शाम को एक घंटे की आवश्यकता होती है। उन्हें प्रतिदिन 10 रुपये मिला करते थे इस काम के। उनके भाई रोज़ दो अखबार खरीदते थे एक अंग्रेजी और दूसरा तेलगु ताकि नौकरी के लिए रिक्त पदों की जानकारी इकठ्ठा कर सके।

कुछ समय बाद, मधुसूदन राव को उसी निर्माण स्थल पर चौकीदार की नौकरी मिल गई, उन्हें इस काम के प्रति माह 300 रुपये मिला करते थे । चूंकि वह पूरे दिन मुक्त थे, इसलिए उन्होंने अतिरिक्त काम की तलाश की। एक महीने बाद, वह पास के इलाके में सातवीं कक्षा के छात्रों को ट्यूशन पढ़ाने लगे और महीने के 900 रूपये अतिरिक्त कमाने लगे।  उन्होंने अपना पहला वेतन घर भिजवाया था।

इस बीच उन्हें एक निर्माण स्थल पे काम मिला जहाँ छह फुट गहरी खुदाई केवल रातों के दौरान की जानी थी। उन्होंने चौकीदारी छोड़ कर यह काम करना शुरू कर  दिया क्यूंकि उन्हें यहाँ हर रात काम करने के 400 रूपए मिला करते थे।

सिविल इंजीनियरिंग में डिप्लोमा-धारक होने के नाते, मधुसूदन राव ने जल्दी से केबल बिछाने के तकनीकी पहलुओं को सीख लिया था।  इस बीच उन्हें एक कंपनी में एक रिक्त स्थान का पता चला तो वह वहां साक्षात्कार देने पहुंच गए। वहां दो लोगो में बहस छिड़ी हुई थी क्यूंकि एक ठेकेदार पिछली रात कार्य हेतु पर्याप्त श्रमिक लाने में असमर्थ रहा था। मधुसूदन राव ने बीच में स्वयं श्रमिकों को लाने की पेशकश की।  वह तुरंत अपनी बहन से 3000 रूपए उधार लेकर, एक गाडी किराये पर लेकर गांव जाकर अगले दिन दर्जनों श्रमिकों को ले आये।  यह देख ठेकेदार काफी खुश हुआ और उन्हें  20,000 रूपए दिए और अगले दिन तक़रीबन 100 श्रमिकों को लाने को कहा।  उस दिन  उन्होंने तकरीबन 13,000 रूपए का मुनाफा कमाया था।

अगले दिन मधुसूदन राव 100 श्रमिक के साथ कार्य स्थल पर पहुंच गए।  उस दिन ठेकेदार ने उसे अपने घर बुला कर श्रमिकों के वेतन और बाकी चीज़े हेतु मधुसूदन राव को एक लाख रूपए दिए, पहली बार उन्हें इतने पैसे मिले थे, उनकी ख़ुशी का ठिकाना नहीं रहा, उन्होंने सभी श्रमिकों में लड्डू बटवाये थे वह भी उनके गांव जा कर।  ख़ुशी ज्यादा समय नहीं रही  क्यूंकि किसी ने कोर्ट में उस काम के खिलाफ अर्ज़ी  दायर करवा दी थी और कोर्ट के आदेशानुसार काम  रुक गया था।

दोबारा मधुसूदन राव काम की तलाश करने लगे और  उनकी मुलाकात हुई कर्नल कृष्णन से, उन्होंने तीन महीने तक एक ठेकेदार  के रूप में उन्हे  काम दिया।  कर्नल ने मधुसूदन राव को 5 लाख रुपये का अनुबंध दिया, और जल्द ही मधुसूदन राव के काम से प्रभावित हुए।  मधुसूदन राव के समय से पहले काम खत्म करने की आदत से सभी प्रभावित हो जाया करते थे । इस बीच उनके भाई लगातार सरकारी नौकरी ढूंढ रहे  थे  और वह सहायक प्रबंधक के पद के लिए बीएसएनएल कंपनी में साक्षात्कार दे कर आये।

मधुसूदन राव इस बीच अपने घर पैसे भेजा करते थे और उन्होंने अपनी बहन की शादी में भी आर्थिक सहायता की थी। अगला ठेका उन्हें 10 लाख रुपये का मिला इसके चलते उन्हें कुछ पैसो की ज़रुरत पड़ी तो उन्होंने एक ठेकेदार  जिसका नाम नाराहरी था, जहाँ उसकी बहन काम किया करती थी उनसे  कुछ पैसे उधार लिए  और ब्याज के साथ समय रहते लौटा भी दिए।

1999  तक मधुसूदन राव 50 लाख की ठेकेदारी कर चुके थे। पर अब तक उनकी खुद की कोई कंपनी नहीं थी, तब कर्नल कृष्णन ने उन्हें सुझाव दिया की वह खुद की कम्पनी खोल ले, इस पर मधुसूदन राव ने  नाराहरी से संपर्क किया और उनके साथ साझेदारी में साईराम कंस्ट्रक्शन नामक कंपनी खोल ली।  उन्हें अपना पहला पहला आर्डर जी.टी.एस (ग्लोबल टेली सिस्टम) कंपनी से 1.2 करोड़ का मिला। मधुसूदन राव का यह सबसे बड़ा आर्डर था परन्तु इसका काम ख़त्म करते करते उन्हें पता लगा वह घाटे में चल रहे है,उनके साथ  अपनी ही  कंपनी ने कुछ लोगो ने धोखा किया था।  वापिस  मधुसूदन राव शून्य पर आ  गए।

इस बात ने उन्हें पूरी तरह हिला के रख दिया था , अब उनका काम में मैं नहीं लगता था, वह बस दिन काटने लगे थे और फिल्मे देखने लगे थे।  हालाँकि अच्छी  खबर यह ज़रूर थी की उनके भाई को  बीएसएनएल में सहायक प्रबंधक के पद पर नौकरी मिल गयी थी। मधुसूदन राव आश्वस्त  हो गए थे की परिवार  सरकारी नौकरी के चलते सब कुछ ठीक ठाक चल जायेगा।

एक दिन  फिल्म देखने के बाद वह अपने पुराने दोस्त रामेश्वरम से मिले और अपनी सारी बाते सुनाई। रामेश्वरम ने अपने दोस्तों  के साथ मिल कर एक नयी कंपनी खोली थी उसमे उन्होंने मधुसूदन राव को 10000  रूपए प्रति माह की नौकरी दी। मधुसूदन राव की मेहनत  और लगन को देख कर जल्द ही वह वेतन 16000 रूपए कर  दिया गया।

इस बीच उन्होंने अखबार में एक वैवाहिक विज्ञापन देखा  जिसमे  एक युवती के  विवाह के लिए योग्य वर का प्रस्ताव था। उस युवती का नाम था पद्मलता। मधुसूदन राव उनके परिवार से मिलने चले गए पर विवाह के लिए शर्त ये रखी गयी की मधुसूदन राव दोबारा अभी ठेकेदारी या किसी प्रकार के व्यपार में  नहीं जायेंगे।  उन्होंने उस वक़्त तो ये बात मान ली। फिर जल्द ही उनकी शादी हो गयी।  उन्होंने अपनी पत्नी पद्मलता से ये बात छुपा  रखी थी की उनका मासिक वेतन 16000  है, उन्होंने  अपनी पत्नी को मात्र  10000 रुपय बता रखा था ये सोच कर बाकी पैसे बचायेंगे और भविष्य में  व्यवसाय में काम आएंगे। व्यवसाय में उनकी रूचि कभी  कम नहीं हुयी थी।

एक दिन, एक डाकिया मधुसूदन राव के लिए एक पत्र दे के गया, जबकि वह उस समय काम के सिलसिले से बाहर गए हुए थे। पद्मलता ने इसे नहीं खोला लेकिन उन्हें संदेह हो गया था क्योंकि यह चिट्ठी उद्योग विभाग से आयी थी। मधुसूदन राव को वापिस घर आकर  स्वीकारना ही पड़ा कि उन्होंने  एक कंपनी पंजीकृत की है।  उन्होंने अपनी पत्नी को अपने स्वप्न के बारे में बताया और  पति के जज़्बे, उनकी कार्यकुशलता,  प्रेरक कौशल और धैर्य को देख के उनकी पत्नी  व्यवसाय  के लिए मान गयी।

मधुसूदन राव  दोबारा जी.टी.एस कंपनी से संपर्क किया, उन्होंने  मधुसूदन राव  को पहला 3 लाख रुपये का ऑर्डर दिया और उन्होंने इस काम को एक माह की अवधी में पूरा करके 1  लाख रुपये का मुनाफ़ा कमाया।  अब वो अपने कर्म पथ पर अग्रसित हो चुके थे  जहां  से उनका वापिस आना  संभव नहीं था। अपनी मेहनत से लगातार वो शिखर  की सीढिया चढ़  रहे थे ।  कुछ ही समय में वह आंध्र प्रदेश की प्रमुख दूरसंचार कंपनियों के लिए एक प्रमुख विक्रेता के रूप में उभरने।

“एम.एम.आर. ग्रुप” के मालिक के रूप में वो प्रेरक बन गए थे हर एक इंसान के लिए।  वो कहते है ना ” जहाँ चाह है वहां  राह है ” और इसका एक जीता जागता उदाहरण है मधुसूदन राव। buy over the counter medicines


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