हम अक्सर किताबें पढ़ने लाइब्रेरी जाते हैं। वहां रखी किताबे हमें अक्सर रोमांचित कर देती हैं। वहां हजारों की संख्या में रखी किताबों में हम अपनी पसंदीदा किताब ढूंढते हैं और उसे पढ़ते हैं। लाइब्रेरी नाम सुनकर अक्सर हमारी आंखों के सामने एक दृश्य आ जाता है, जिसमें हजारों किताबें सहेज कर रखी रहती हैं। लेकिन क्या किसी ने कभी सोचा होगा, कि एक लाइब्रेरी ऐसी भी होगी जिसमें किताबों की जगह चावल के दाने और बीजों को सहेज कर रखा जाएगा? नहीं ना! लेकिन यह एक वास्तविक सच है, और इसे मुमकिन बनाया है असम के रहने वाले मोहान बोरा ने। आइए जानते हैं मोहान बोरा के इस अनोखी लाइब्रेरी के बारे में।
असम के जोरहाट में रहने किसान मोहन चंद्र बोरा ने इस अनोखी लाइब्रेरी की शुरुआत की, जिसमें किताबों की जगह किसानों की कला को सहेजा जाता है। साथ ही असम की खाद्य संस्कृति को भी सहेजा जाता है। मध्यमवर्गीय परिवार से ताल्लुक रखने वाले इतिहास विषय में स्नातक मोहन बोरा ने पढ़ाई करने के बाद अपने पिता की तरह खेती करना शुरू किया। तीन बीघा जमीन में परिवार के लिए साग सब्जियां और फसल उगाने वाले किसान मोहन बोरा बताते हैं, कि उन्होंने खेती हमेशा जैविक तरीकों से की है। उन्होंने कभी भी रासायनिक उर्वरकों का प्रयोग नहीं किया है।
बोरा बताते हैं, कि उन्हें शुरुआत से ही खेती करना बहुत पसंद था। उनके इलाके में अनेक संगठन ऐसे थे जो खेती के बारे में जानकारी देते थे। बोरा भी एक ऐसे ही सामाजिक संगठन से जुड़ गए। संगठन में रहने की वजह से अक्सर उनका मिलना अनेक शोधकर्ताओं से होता था, जो खेती के नए तरीके और बीजों के बारे में जानकारी देते थे। जब भी कहीं खेती से संबंधित कार्यक्रम होता था, तो मोहन बोरा वहां पहुंच जाते थे। धीरे-धीरे उन्हें समझ में आने लगा कि ज्यादा मुनाफे और उपज के लोभ में आकर किसान अपनी फसल उगाने के देसी तरीकों को भूलते जा रहे हैं।
मोहान की अनोखी शुरुआत – ‘अन्नपूर्णा सीड लाइब्रेरी’
खेती से लगाव रखने वाले बोरा ने निर्णय लिया कि वह अपने फसलों की देसी संस्कृति को बचाने के लिए हर संभव कोशिश करेंगे। उन्होंने लोगों से बात करना शुरू किया। उन्हें यह समझाना शुरु किया कि, किस तरह किसान अपनी देसी संस्कृति भूलते जा रहे हैं। लेकिन कोई भी व्यक्ति उनके इस प्रयास को समझना नहीं चाहता था। किसी ने भी उनकी मदद करना सही नहीं समझा। इसके बाद बोरा ने ‘एकला चलो रे’ नीति का प्रयोग करना शुरू किया। उन्होंने अकेले ही यह काम करने का निर्णय लिया और बीजों को सहेजना शुरू कर दिया।
बोरा बताते हैं कि वह पिछले 12 साल से यह काम कर रहे हैं। उन्होंने शुरुआत सिर्फ तीन प्रकार के चावल से किया था, लेकिन आज उनके पास 270 प्रकार के चावल उपलब्ध हैं। उन्होंने इन चावलों को पूरे देश में घूम-घूम कर इकट्ठा किया है। इनमें अनेक प्रकार के चावल उपलब्ध है जैसे काली चावल, लाल चावल, सफेद चावल इत्यादि। उन्होंने इन चावलों को सहेजने के साथ ही इन्हें एक नाम देने का सोचा, और यही से निकली ‘अन्नपूर्णा सीड लाइब्रेरी’।
मोहान की इस लाइब्रेरी का सिद्धांत है कि देश के अलग-अलग राज्यों में पारंपरिक तरीके से उगाई जाने वाली चावलों के बीज को इस लाइब्रेरी में संरक्षित करके रखना और अगर कोई चाहे तो इन बीजों की सहायता से अनेक प्रकार के चावल का उत्पादन कर सकता है। बोरा का मानना है कि आप बीज लेकर फसल उगाए, फिर उनमें से कुछ बीजों को संरक्षित करके रखिए, या फिर दूसरे किसानों को उपलब्ध कराए। इस तरह से देसी और पारंपरिक तरीके से चावल का उत्पादन भी हो रहा है, और किसान जागरूक भी हो रहे हैं।
चावलों के संरक्षण की विशेषता
मोहान किसानों को इन बीजों की विशेषता भी बताते रहते हैं, ताकि किसान खुद तय कर सके कि उन्हें किस प्रकार के चावल का उत्पादन करना है। चावलों की एक खास विशेषता है कि यह किसी भी प्रकार के जलवायु को झेल सकते हैं। चाहे वह बाढ़ हो, सुखा हो, या अधिक वर्षा ही क्यों ना हो। बोरा इन चावलों के गुणों को देखते, समझते, और लिखते भी हैं।
किस चावल को ज्यादा पानी चाहिए, किसको कम, किसको कितना पोषण, कितने दिनों में फसल तैयार होगी और कितनी उपज होगी, इत्यादि जानकारियां को लोगों को समझाते हैं।
बोरा कहते हैं कि –
‘इन चावलों में पोषक तत्व की मात्रा बहुत अधिक होती है, लेकिन हाइब्रिड बीजों के वजह से आज के समय में इनका उत्पादन कम हो गया है। मैं चाहता हूं कि हमारे किसान भाई इस बात को समझें और हाइब्रिड बीजों के स्थान पर अपने देसी तरीकों से देसी चावलों का उत्पादन करें, जिससे हमारा खाना और प्रकृति दोनों सुरक्षित रहे’।
बोरा की यह पहल सिर्फ उनके इलाके तक ही नहीं रही, बल्कि राज्य के दूसरे हिस्सों में भी पहुंच रही है। आज सदिया, बलीपारा और काजीरंगा जैसे राज्य के दूसरे हिस्सों में भी इस तरह की लाइब्रेरी शुरू की गई है।
मोहान चंद्र बोरा के काम की यह खासियत है, कि उन्होंने इसे सिर्फ अपने आप तक ही सीमित नहीं रखा। उन्होंने देश के अलग-अलग हिस्सों में घूम-घूम कर लोगों को इसके लिए जागरूक किया। उन्होंने खेती से संबंधित कार्यक्रमों में भी जाकर वहां के लोगों को इसके महत्व के बारे में बताया। साथ ही वह कृषि के बारे में अध्ययन करने वाले छात्र-छात्राओं के संपर्क में रहते हैं। इसके अलावा वह पिछले 9 सालों से एक स्कूल में जैविक खेती और देशी बीजों के संरक्षण के विषय को पढ़ा रहे हैं।
स्कूल के प्रधानाध्यापक ने बताया कि आज के समय में जब लोग नौकरी के पीछे भागते हैं, ऐसे समय में बोरा ने एक अनोखी पहल की है। स्कूल के पास 10 एकड़ की जमीन है जिसे वह बच्चों को खेती के गुर सिखाने के लिए इस्तेमाल करते हैं। इसके साथ ही बोरा हर साल बच्चों को अपनी लाइब्रेरी से अनाजों के बीज देते हैं, जिसे वह अपने घरों के खाली जगह या खेतों में लगाते हैं।
जब फसल उगती है तब बच्चे फसल के बीज को वापस लाइब्रेरी में जमा करा देते हैं ताकि दूसरे लोग इसका उपयोग कर सकें। स्कूल के अलावा वह एक स्थानीय कॉलेज में भी छात्रों को जैविक खेती के बारे में पढ़ाते हैं। उनका उद्देश्य आने वाली नस्ल को इस विरासत को सम्भालने के लिए तैयार करना है।
बोरा का अनुभव
बोरा बताते हैं कि आज उन्हें बीजों के मामले में बहुत ज्यादा अनुभव हो गया है। इन अनुभवों का प्रयोग वो दूसरे किसानों को जागरूक करने में करते हैं। हमारी खाद्य सुरक्षा के लिए यह बहुत जरूरी है कि हम हाइब्रिड बीजों के स्थान पर स्थानीय बीजों का इस्तेमाल शुरू करें, जो किसी भी प्रकार के मौसम को झेलने में सक्षम होते हैं।
बोरा ने बताया कि ‘मुझे मेरे काम के लिए सराहना तो बहुत मिली लेकिन आर्थिक मदद नहीं मिली। अगर उन्हें सरकार या लोगों से आर्थिक मदद मिलती तो वह इस अभियान को बड़े स्तर पर ले जाते, ताकि आने वाली नस्लें भी इसके महत्व को समझें। फिलहाल मेरी यह लाइब्रेरी सिर्फ मेरी नहीं, बल्कि देश के हर नागरिक की है। इसे बड़े स्तर पर ले जाने के लिए मुझे सभी लोगों का साथ चाहिए’।
मोहान चंद्र बोरा की इस अनोखी लाइब्रेरी की कहानी अगर पसंद आई हो तो इसे और भी लोगों तक पहुंचाएं। साथ ही टिप्पणी करके जरूर बताएं कि क्या आपको भी खेती करना पसंद है? hairy girl
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