कोयला जो कि भारत की विद्युत ऊर्जा जरूरतों का लगभग 70 प्रतिशत प्रदान करता है और साथ ही हम सभी यह भी जानते है की यह पर्यावरण के लिए हानिकारक भी है लेकिन, क्योंकि कोयला इतना प्रचुर मात्रा में उपलब्ध है और सस्ता भी है, इसलिए कई लोग इसे ईंधन स्रोत के रूप में नकारने के लिए अनिच्छुक हैं। जब कोयले को जलाया जाता है तो यह कई जहरीले विषाक्त पदार्थों और प्रदूषकों को छोड़ता है। उनमें पारा , सीसा, सल्फर डाइऑक्साइड, नाइट्रोजन ऑक्साइड, पार्टिकुलेट और अन्य विभिन्न भारी धातुएं शामिल हैं।
कोयला के कई पर्यावरणीय प्रभावों में से कोई भी ग्लोबल वार्मिंग की तरह हानिकारक, दीर्घकालिक और अपरिवर्तनीय नहीं है। स्वास्थ्य प्रभाव की दृस्टि से देखे तो पता लगता है कि अस्थमा और सांस लेने में कठिनाई, मस्तिष्क क्षति, हृदय की समस्याओं, कैंसर, तंत्रिका संबंधी विकार और कई बीमारिया भी हो सकती है।
इसलिए कोयले की विकल्प हेतु ‘सफेद कोयले’ या ‘जैविक कोयला’ जिसे ‘बायो कोल’ भी कहते है उसके निर्माण पर ज़ोर दिया जा रहा है। एग्रो वेस्ट यानी जैविक कचरा जैसे कि कपास, पौधों, वन पत्तियां, मूंगफली के गोले, ढलाईकार बीज के गोले, कपास के फूल, लकड़ी, चावल भूसी, सरसों का कचरा, अरहर का डंठल, पाइन सुइयां सरकंडा, कॉफी की भूसी, सूरजमुखी का कचरा, गन्ने की पत्तियां व कचरा, मक्का के डंठल, बाजरा के कोबर्स, सॉ डस्ट, बांस के पत्ते, जंगली घास, झाड़ियाँ आदि से इसे त्यार किया जा सकता है।
बायो-कोल ब्रिकेटिंग कृषि अपशिष्ट को उच्च घनत्व और ऊर्जा केंद्रित ईंधन में परिवर्तित करने की प्रक्रिया है। तेल की बढ़ती लागत सहित कई कारकों के कारण से सफेद कोयले का विकास महत्वपूर्ण हो रहा है, जैसे प्राकृतिक गैस और बिजली और जीवाश्म ईंधन (फॉसिल फ्यूल ) की कमी, जीवाश्म ईंधन के विकल्प खोजने की जरूरत और ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन को कम करने के लिए दुनिया भर के ऊर्जा विशेषज्ञों द्वारा सफेद कोयले में रुचि को प्रेरित किया जा रहा है। यह बहुत अच्छा अक्षय ईंधन विकल्प लगता है। यह उन क्षेत्रों में विशेष रूप से उपयोगी है जहाँ पर्याप्त कृषि-कचरा उत्पन्न होता है और पशुओं के लिए पर्याप्त ताज़ी घास, फीडर आदि उपलब्ध हैं। इससे किसानों को भी मदद मिलती है।
उनके कृषि-कचरे से अतिरिक्त आय प्राप्त करने में। इस क्षेत्र में भारत में भी काम चल रहा है, और इस ही बीच दो इंजीनियरिंग छात्रों ने जूट से ऐसे ही ब्रिकेट बना कर एक अहम पहल की है।
करण घोराई और कथा सुर जो कि कोलकाता के नेताजी सुभाष इंजीनियरिंग कॉलेज नामक शैक्षणिक संस्थान में है, वह शुरू से ही इस देश के ग्रामीण वर्ग के लोगो के लिए कुछ करना चाहते थे। कथा बताती है कि उनके मन में ये इच्छा तो थी पर ग्रामीण भारत के लोगो के लिए क्या किया जाये इसका उन्हें कोई विचार नहीं था। इस पर उन्होंने अपने पिता से पूछा , उनके पिता का कहना था कि बिना ग्रामीण इलाको व गांव में जाए , वहां के लोगो से मिले बिना, यहाँ बस शहरों में बैठ कर उनकी समस्या का मात्र अनुमान लगाने से कुछ नहीं होगा एवं यह तुम्हारे स्वप्न को किसी भी दिशा में नहीं ले जायेगा और इस परामर्श को मान कर वह दोनों कोलकाता के आस-पास के गाँवों में जाकर वहां के लोगो से मिलने लगे और उनकी समस्याओ को जानने का प्रयास करने लगे।
उन्हें पता लगा कि वहां किसान जूट उगाते है, पर बाज़ार में फाइबर बेचने के बाद काफी कचरा बच जाता है, और चूँकि उसका कोई उपयोग नहीं होता व न तो उनका मूल्य होता है इसलिए वह उसे या तो जला देते है या कही फेक देते है।
अब करण और कथा के सामने चुनौती यह थी कि ऐसा क्या किया जाए जिससे इस जैविक कचरे का उपयोग हो, किसानो की आय में वृद्धि हो और जूट स्टिक को जलाने से जो पर्यावरण को नुकसान हो रहा है उसमे गिरावट आये। इस विषय में उन दोनों ने खोज प्रारम्भ की और पाया की इन जूट स्टिक के इस्तमाल आसानी से ईंधन के तौर पर किया जा सकता है। उन्हें अपने आगे की खोज में यह भी पता लगा की इस जूट स्टिक के बुरादे को सही मात्रा में लेकर और दबाव लगाने पर इससे ब्रिकेट यानी कि सफेद कोयला बनाया जा सकता है।
बस तो अब देर किस बात की थी, उन्होंने इस योजना का प्रोटोटाइप बनाया और इसके प्रायोगिक उपयोग के लिए तैयार हो गए , पर इसके लिए उन्हें ब्रिकेटिंग मशीन की ज़रुरत थी जो कोलकाता में मौजूद नहीं थी। उन्होंने इसके लिए गुजरात में एक कंपनी से बात की तो उन्होंने करण और कथा को प्रारम्भिक तौर पे 80 किलोग्राम रॉ मटेरियल मतलब कि जूट स्टिक लाने को कहा, काम थोड़ा मुश्किल था, पर करण और कथा इसमें जुट गए, व अपनी मेहनत और कॉलेज प्रशासन की मदद से 110 किलोग्राम जूट स्टिक इकट्ठा करने में सफल रहे।
कथा बतलाती है कि “सब कुछ हमारे प्रोटोटाइप के साथ शुरू हुआ। हमारे सफेद कोयले को एक मशीन से बनाया जाता है जिसे ब्रिकेटिंग मशीन कहा जाता है – जो किसी भी प्रासंगिक कच्चे माल से सफेद कोयला बना सकती है। हमने कुचले हुए जूट स्टिक को गुजरात के एक प्लांट में भेजा था जिसमें ब्रिकेटिंग मशीनें थीं। वही प्रथम बार हमारा परिक्षण सफल हुआ, यहां तक कि गुजरात के लोग हैरान थे कि जूट की छड़ें सफेद कोयले की ब्रिकेट बनाने के लिए भी इस्तेमाल की जा सकती हैं।”
परिणाम आने पर सब समान रूप से विस्मय में थे, कि आखिर कैसे अभी तक किसी ने इस विषय पर नहीं सोचा था।
करण बतलाते है कि “सफेद कोयले का एक फायदा यह है कि सफेद कोयले के कारण होने वाला प्रदूषण स्मूथली काले कोयले से कम होता है जिसमें सल्फर की मात्रा नहीं होती है। इसके अलावा, हमारे सफेद कोयले द्वारा उत्पादित की गई ऊर्जा, नियमित कोयले से उत्सर्जित होने वाले के लगभग बराबर है।
औद्योगिक बी ग्रेड कोयले का कैलोरी मान 4000-6000 किलो कैलोरी / किग्रा है और उसी जगह जूट स्टिक से उत्पन्न हमारे सफेद कोयले की कैलोरी वैल्यू लगभग 4500 किलो कैलोरी / किलोग्राम है। इन सब चीज़ो के चलते करण और कथा के नवाचार(इनोवेशन) को प्रारंभिक परीक्षण के दौरान, उद्योग में स्पष्ट स्वागत मिला। इससे हजारों संकटग्रस्त जूट किसानों को आजीविका का एक नया स्रोत मिला है।
अपने काम के लिए, कथा और करण ने उत्पाद नवाचार श्रेणी में 3M-CII यंग इनोवेटर्स चैलेंज अवार्ड 2019 प्राप्त किया एवं हर किसी ने उनके इस प्रोजेक्ट की सराहना की। जूट स्टिक से सफेद कोयला बनाने में उनका काम वास्तव में ऊर्जा का एक प्रासंगिक स्रोत बनाने में नई सफलता हो सकती है, जो कि पर्यावरण के अनुकूल भी है, और इससे हजारों लोगों के लिए आजीविका का नया स्रोत खुल सकता है।
जो कभी एक बेकार माना जाने वाला पदार्थ था, उससे अवसर पैदा करना सच में एक सराहनीय कृत्य है। buy viagra online