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पुस्तक समीक्षा: पोस्ट बॉक्स नंबर 203 नालासोपारा

पुस्तक: पोस्ट बॉक्स नंबर 203 नालासोपारा

 लेखक: चित्रा मुद्गल

 प्रकाशन: सामयिक पेपर बॉक्स

पोस्ट बॉक्स नंबर 203 नालासोपारा

 पुस्तक “पोस्ट बॉक्स नंबर 203 नालासोपारा” की रचयिता चित्रा मुद्गल है .इनकी रचनाएं सबसे अधिक पढ़ने वाली रचनाओं में शामिल है .यह हमारे दौर की ही लेखक हैं.जिनकी रचनाओं को पढ़ने की उत्सुकता हमेशा ही आज की पीढ़ी में रहती है उनकी यह कृति “पोस्ट बॉक्स नंबर 203 नालासोपारा” एक बहुत ही प्रसिद्ध कृति है जिसके लिए उन्हें प्रतिष्ठित साहित्य अकादमी पुरस्कार से भी सम्मानित किया गया है .उन्हें आधुनिक हिंदी की कवियत्री के रूप में भी जाना जाता है.

यह उपन्यास “पोस्ट बॉक्स नंबर 203 नालासोपारा” हाल ही लिखा हुआ उपन्यास है. इसे लिखे हुए अधिक समय नहीं हुआ. जैसा कि आप जानते हैं कि नालासोपारा मुंबई के पास कोने में स्थित एक जगह है इस जगह वह लोग रहते हैं जो बीच मुंबई में घर लेने में असमर्थ हैं और जो नए-नए काम की तलाश में मुंबई निकल जाते हैं वह नालासोपारा में अपने रहने का ठिकाना करते हैं. जो व्यक्ति मुंबई में रह चुका है केवल वही वहां के रहन-सहन तकलीफों भरी जिंदगी को अच्छी तरह से समझ सकता है वैसे मुंबई को सपनों का शहर कहा जाता है लेकिन सपना टूटने पर ही उसकी हकीकत का अंदाजा होता है. इस पुस्तक में लेखिका के किरदार का नाम विनोद है जो अपनी मां को उस पते पर चिट्ठियां भेजता है आप सोच रहे होंगे कि विनोद काम के कारण  परिवार से दूर रहता है. लेकिन ऐसा नहीं है दरअसल लेखिका का किरदार विनोद एक किन्नर है जिसका नाम बदलकर बिन्नी रख दिया है. समाज के कारण उसे अपनी माँ और परिवार से दूर रहना पड़ता है, वे मजबूर है. विनोद का लालन-पालन आम बच्चों की तरह नहीं हुआ विनोद पढ़ने लिखने में भी काफी होशियार था लेकिन समाज के बंदिशों के कारण वे अपने परिवार से दूर हो गया और किन्नरों के साथ रहने चला आया विनोद ने अपनी जिंदगी में कई उतार-चढ़ाव देखे वह अपने परिवार के साथ रहना चाहता था लेकिन वह मजबूर था. वह अपने जीवन के सभी उतार-चढ़ाव की जानकारी चिट्ठियों के जरिए अपनी माँ को बताता था और उसकी माँ भी उसे चिट्ठियों से ही जवाब देती है उन दोनों के बीच की ये दूरियां रूढ़ीवादी समाज के कारण आई थी. इन सब घटनाओं के कारण भी लेखिका का किरदार विनोद अपने जीवन में कुछ करना चाहता था वह चाहता था कि उसकी बिरादरी को रूढ़िवादी समाज में स्वीकारा जाए उन्हें भी बाकियों की तरह उनका हिस्सा दिया जाए , बाकियों से अलग ना समझा जाए, उन्हें भी बराबरी का हक मिले. आगे की कहानी बताती है कि यह सब करना इतना आसान नहीं है क्योंकि इस समाज में उनकी सुनने वाले कम ही लोग हैं लेकिन वह इसमें सफल नहीं हो पाता उसका सपना, सपना ही रह जाता है लेखिका कहती है कि हार विनोद की ही नहीं बल्कि कहीं ना कहीं हमारी भी है.

 लेखिका ने पूरी कहानी का वर्णन भावपूर्ण तरीके से किया है इसे पढ़ने वाला इसमें बंध जाता है और किन्नरों की कठिनाइयों से अवगत होता है लेखिका इस उपन्यास के जरिए रूढ़िवादी समाज की व्याख्या करती हैं कि किस तरह समाज परिवारों को उनके अपनों से दूर कर देते हैं. लेखिका की कहानी में मां और बेटे के भावों को बड़ी ही सुंदरता के साथ दिखाया है. इसे मेरे लिए पढ़ना काफी दिलचस्प रहा.


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