आज हम एक ऐसे स्वतंत्रता सेनानी के विषय में बतलायेंगे जिनके बारे में इतिहास में हमने कम पढ़ा है। यह पहले ब्रिटिश इंडियन आर्मी में रहे फिर यह इंडियन नेशनल आर्मी (आईएनए) में शामिल हो गए और उसके बाद आज़ाद भारत में मंत्री पदों पर भी विद्यमान रहे। “चालीस करोड़ों की आवाज़ सहगल – ढिल्लों – शाहनवाज़” 1945 का यह नारा तो काफी लोगो को याद ही होगा। हम आज उन्ही शाहनवाज़ खान के जीवन को देखेंगे।
शाहनवाज़ खान का जन्म 24 जनवरी 1914 को रावलपिंडी में हुआ था। उनके पिता, टिक्का खान, ब्रिटिश इंडियन आर्मी में एक अफसर थे। अपने पिता के पद्चिन्नो पर चलते हुए वह भी 1935 में आर्मी में कमीशन हुए। यह समय द्वितीय विश्व युद्ध का था , जब द्वितीय विश्व युद्ध शुरू हुआ, तो शाहनवाज़ ने कई अन्य लोगों की तरह, दक्षिण पूर्व एशिया में कमान सँभालने के लिए गए।
1942 में जब वे सिंगापुर में तैनात थे, तब एक भीषण युद्ध के बाद सिंगापुर जापानीयों के कब्ज़े में आ गया था और जापान ने तकरीबन 40,000 भारतीय कर्मियों को बंदी बना लिया था। उनमे से एक शाहनवाज़ भी थे । इस बीच सुभाष चंद्र बोस और मोहन सिंह सिंगापुर आये थे, भारतीयों को छुड़वाने। शाह नवाज़, सुभाष चंद्र बोस के विचारो से, देशभक्ति भाषणों से काफ़ी प्रभावित थे।
शाह नवाज़ ने 1943 में आईएनए में शामिल होने के लिए स्वेच्छा से इच्छा जताई, और वह इंडियन नेशनल आर्मी में शामिल भी हो गए। उन्हें नेताजी द्वारा गठित अर्ज़ी हुकुमत-ए-आज़ाद हिंद के मंत्रिमंडल में शामिल किया गया था। इंडियन नेशनल आर्मी में उन्हें उनके जज़्बे, समर्पण, निष्ठा, कार्यकुशलता के चलते जल्द ही पदोन्नति प्राप्त हुई, और उन्हें सेकंड डिवीज़न अफ़सर बनाया गया।
भारत की मुख्य भूमि पर जापानी सेना ने मार्च 1944 को हमला शुरू किया था । आईएनए का काम यहाँ जापानी फ़ौज की मदद करना व उनके कई मिशन में सहयोग देना था। जापानी सेना का लक्ष्य कोहिमा था। कोहिमा की लड़ाई जून 1944 तक चली, उसके बाद जापानी सेना पीछे हटने पर मजबूर हो गयी क्योंकि वह ब्रिटिश रक्षा माध्यमों को तोड़ने में असमर्थ थी। इस बीच शाहनवाज़ सेना में बड़े अफसर बन चुके थे व सेना कि कमान सँभालने लगे थे।
उन दिनों शाहनवाज़ चिन हिल्स में सुभाष रेजिमेंट की दो बटालियनों की कमान संभाल रहे थे, और उन्हें इस अभियान के दौरान कड़ी मशक्कत का सामना करना पड़ रहा था। रास्ता काफी मुश्किल था और खाने का राशन भी सही मात्रा में नहीं मिल पा रहा था। इसके अलावा उनके कई सैनिक मलेरिया जैसी बीमारियों से ग्रस्त थे और उन्हें उचित उपचार व दवा नहीं मिल रही थी। इसके अलावा, लंबे पहाड़ी संचार लाइन पर आधे लोगो को सामान ढोने के लिए इस्तेमाल किया जा रहा था। मई 1945 में, जनरल शाहनवाज़ और उनके लगभग 50 लोगों ने बर्मा के पेगु में ब्रिटिश सेना के सामने आत्मसमर्पण कर दिया और उन्हें कैदी बना लिया गया।
उनके साथ, उनके मित्र प्रेम सहगल, गुरबख्श सिंह ढिल्लों पर भी देशद्रोह के आरोप लगाए गए और उन सबको कोर्ट-मार्शल के लिए दिल्ली के लाल किले में लाया गया। उन पर मिलिट्री ट्रायल चलाया गया क्योंकि उन्होंने स्वतंत्रता संग्राम में भाग लेने के लिए ब्रिटिश इंडियन आर्मी को छोड़ दिया था। उनका बचाव सर तेज बहादुर सप्रू, जवाहरलाल नेहरू, आसफ अली, भूलाभाई देसाई, कैलाश नाथ काटजू जैसे दिग्गजों ने किया था। कर्नल प्रेम सहगल, कर्नल गुरबख्श सिंह ढिल्लों और मेजर-जनरल शाहनवाज़ खान पर हत्या, हत्या के उद्देश्य से अपहरण और ब्रिटिश साम्राज्य से विद्रोह का आरोप लगा था ।
इंडियन नेशनल आर्मी के लोगो के खिलाफ मुकदमो से बड़े पैमाने पर जनता नाराज थी। ब्रिटिश सरकार आईएनए के सदस्यों को ’देशद्रोही’ के रूप में देखती थी, जबकि आम भारतीयों के लिए वह ‘ नायक ‘ और ‘ देशभक्त ‘ थे। ब्रिटिश शासन के इंटेलिजेंस ब्यूरो ने उस समय एक रिपोर्ट तैयार की थी जिसके आधार पर बताया गया था कि अगर आईएनए के आरोपियों के खिलाफ कठोर सजा निर्धारित की गयी तो आम जनता से गंभीर प्रतिक्रिया होने की आशंका है ।
3 जनवरी, 1946 को हुए फैसले के आधार पर उन्हें देशद्रोही करार देते हुए सेवा से निकाल दिया गया, उनके वेतन और भत्ते भी ज़ब्त कर लिए गए, हालाँकि उन्हें फाँसी की सज़ा नहीं हुई।
आईएनए के विघटन के बाद शाहनवाज़ खान कांग्रेस पार्टी में शामिल हो गए। उनका राजनैतिक सफर भी काफी शानदार रहा। वह अपने कार्यकाल में संसदीय सचिव , कृषि और सिंचाई मंत्री, खाद्य और कृषि मंत्री, श्रम, रोजगार और पुनर्वास मंत्री, इस्पात और खान मंत्री और पेट्रोलियम और रसायन उद्योग मंत्री जैसे उच्च पदों पर आसित रहे।
उन्हें साल 1956 में एक समिति का अध्यक्ष बनाया गया जिनका काम था नेताजी सुभाष चंद्र बोस की मृत्यु के रहस्य का पता लगाना। यह समिति ‘शाहनवाज़ समिति’ के रूप में जानी गयी। समिति ने अप्रैल 1956 में अपना काम शुरू किया और चार महीने बाद जब कार्य समाप्त हुआ तब समिति के तीन सदस्यों में से दो ने एक कागज पर हस्ताक्षर किए जिसमें कहा गया था कि नेताजी की दुखद मृत्यु एक हवाई जहाज दुर्घटना में ही हुई है।
शाहरुख खान से भी जुड़े हैं तार
इन सभी बातो के बीच उनके जीवन से जुड़ा एक और किस्सा काफी मशहूर है। कई सूत्रों के मुताबिक लतीफ़ फ़ातिमा जो कि मशहूर बॉलीवुड सुपरस्टार शाहरुख़ खान की माँ है, उन्हें शाहनवाज़ खान ने अपनी बेटी के रूप में प्रेम करते थे और उन्हें गोद भी लिया था।
हुआ कुछ ऐसा था कि एक बार दिल्ली में लतीफ़ फ़ातिमा और उनका परिवार किसी दुर्घटना में फ़स गया था, तब उस वक़्त शाहनवाज़ ने उनकी काफी सहायता की थी। इसके बाद लगातार दोनों परिवार सम्पर्क में रहे। यह भी माना जाता है कि लतीफ़ फ़ातिमा की शादी मीर ताज मोहम्मद खान (जोकि एक स्वतंत्रता सेनानी थे और शाहनवाज़ के काफी अच्छे मित्र भी थे) से शाहनवाज़ के घर पर ही हुई थी।
यह स्वतंत्रता सेनानी साल 1983 में इस दुनिया को छोड़ कर चला गया। उनका जीवन प्रेरणा से भरपूर रहा। unshaven girl