दान करना एक ऐसा कार्य है जिसके जरिए हम धर्म का ठीक-ठीक पालन कर सकते हैं। मनुष्य को दान अपनी इच्छा से करना चाहिए। किसी के दबाव में आकर किया हुआ दान का सुखद फल नहीं मिलता। प्रकृति अपना सब कुछ जीवों को बिना मांगे दे देती है और ईश्वर भी हमें हमारी योग्यता और आवश्यकता के अनुसार दान देते हैं, इसलिए मनुष्य का भी यह कर्तव्य बनता है कि अपनी इच्छा से दान करें। शास्त्रों के अनुसार, जो व्यक्ति समाज में दान-पुण्य का काम नहीं करता, उसे सभ्य नहीं समझा जाता तथा उसकी निंदा होती है और उसका पतन होना निश्चित है, परंतु जो व्यक्ति निस्वार्थ भाव से दान देता है, वह समाज में यश और कीर्ति प्राप्त करता है तथा सभी उसका आदर सत्कार करते हैं।
आज हम अपने दर्शकों को, एक पौराणिक कहानी के माध्यम से, निस्वार्थ भाव से दान देने की विशेषताओं के बारे में बताना चाहेंगे।
निस्वार्थ भाव से दान करने पर मिलता है सबसे ज्यादा पुण्य
प्राचीन काल में एक राजा अपने नगर पर राज्य किया करता था। उसका राज्य बहुत भव्य और संपन्न था, परंतु एक दिन उसके कुल गुरु ने कहा कि अगर वह एक भिखारी से दान लेकर नहीं आया, तो उसके राज्य का पतन शुरू हो जाएगा। यह बात सुनकर राजा घबरा गया और अपने नगर में एक भिखारी को ढूंढने निकला, जिससे वह दान ले सके। बहुत ढूंढने के बाद उसे एक भिखारी मिला। राजा ने अपनी सभी समस्याओं उस भिखारी को बताई और बोला कि कृपा आप मेरी मदद करें और मुझे भीख दें।
राजा की बातें सुनकर भिखारी हैरान रह गया, परंतु वह मना भी नहीं कर सकता था। उसने अपनी झोली में हाथ डाला और मुट्ठी में अनाज भर लिया, परंतु दान देने से पहले बस सोचने लगा कि यह अनाज तो मेरा है, अगर यह सारा अनाज मैं राजा को दे दूंगा तो मेरी झोली में क्या बचेगा और यह सोचकर उसने राजा को थोड़ा सा अनाज दे दिया और थोड़ा अपनी झोली में छोड़ दिया।
अनाज लेने के बाद, राजा ने उस भिखारी को अनाज के बराबर वजन की पोटली दी और कहा कि इस पोटली को घर जा कर ही खोलना। भिखारी घर पहुंचा और उसने सारी बात अपनी पत्नी को बताई। पत्नी ने उसकी झोली से पोटली निकालकर खोली तो उसमें सोने के सिक्के थे। यह देखकर दोनों समझ गए कि राजा ने भिखारी को दिए गए अनाज के बराबर सोने के सिक्के दिए हैं। भिखारी को अपनी करतूत पर बहुत पछतावा होने लगा, उसने सोचा कि अगर वह निस्वार्थ भाव से दान देता तो उसे और ज्यादा सिक्के मिलते, जिससे उसकी पूरी जीवन की गरीबी दूर हो जाती।
इस कहानी से हमें यह सीख मिलती है कि दान देते समय हमें कंजूसी नहीं करनी चाहिए और निस्वार्थ भाव से दान देना चाहिए, जिससे हमें इस पुण्य का फल मिलें।
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